कार्तिक मास 2024 व्रत कथा: पंचांग के अनुसार, कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि के साथ आरंभ हो जाता है, जो कार्तिक पूर्णिमा के साथ समाप्त होगा. इस साल कार्तिक मास के पहले दिन की तिथि 17 अक्टूबर दिन गुरुवार को शाम 4 बजकर 56 मिनट पर शुरू हो रही है. ऐसे में तिथि के अनुसार, कार्तिक माह 17 अक्टूबर से शुरू होगा, लेकिन उदयातिथिके अनुसार, कार्तिक माह 18 अक्टूबर दिन शुक्रवार से शुरू माना जाएगा| ऐसी मान्यता है कि कार्तिक मास में वस्त्र, अन्न और धन दान करने से सुख समृद्धि की प्राप्ति होती है. साथ ही इस दिन माता लक्ष्मी और चंद्रमा की पूजा करने से धनागमन होता है. इसलिए इस पूर्णिमा का महत्व अधिक बढ़ जाता है. इस दिन अक्षत और तिल का दान करना शुभ माना गया है. कार्तिक मास में भगवान कृष्ण की कथा सुनना बहुत ही शुभ माना जाता है. इसलिए कार्तिक मास के पहले दिन ये व्रत कथा भी जरूर पढ़ें |
कार्तिक मास के पहले दिन पढ़ें ये व्रत कथा
पौराणिक कथा के अनुसार, जब देवर्षि नारद श्रीकृष्ण से मन्त्रणा करके चले गए, तब हर्ष से गदगद होकर सत्यभामा ने अपने पति श्रीकृष्ण से कहा-हे स्वामि! मैं धन्य हूं, मेरा सफल जीवन धन्य है, मैं अपने को कृतकृत्य समझती हूं, मेरे जन्मदाता वे माता-पिता भी धन्य हैं. क्योंकि उन्होंने निःसंदेह त्रैलोक्यसुन्दरी मुझ सत्यभामा को जन्म दिया है. इस सुन्दरता का ही प्रभाव है कि आपकी सोलह हजार स्त्रियों के रहते हुए भी मैं आपको विशेष प्रिय हूं. केवल इसी के लिए मैंने कल्पवृक्ष के साथ आदिपुरुष आपको विधिपूर्वक संकल्प कर नारद के लिए उस समय समर्पित कर दिया था, जब संसार के लोग कल्पवृक्ष का नाम तक नहीं जानते थे, वहीं कल्पवृक्ष उस समय से मेरे आंगन में लगा हुआ है.
हे मधुसूदन ! तीनों लोकों के स्वामी भगवान् लक्ष्मीपति की मैं अतिशय प्रियतमा हूं, इसलिए मैं आपसे कुछ पूछने की इच्छा करती हूं. यदि आप चाहते हैं तो मेरे प्रश्न का उत्तर विस्तारपूर्वक मुझसे कहिए, जिसे सुनकर मैं अपना कल्याण करूं. (मुझे वह उपाय बताइए) जिससे कल्पपर्यन्त भी मेरा एवं आपका वियोग कदापि न हो.
श्री सूतजी ने कहा कि इस प्रकार अपनी प्रियतमा सत्यभामा की बातें सुनकर श्रीकृष्णजी मन्द-मन्द मुसकाने लगे. सअपने हाथ में लेकर हास-परिहास के साथ कल्पवृक्ष के नीचे पहुंचे और उस स्थान से सब सेवकों को हटा दिया. सत्यभामा की ओर देखकर हंसे, साथ ही पूछा कि (‘क्या वह उपाय सुनोगी?’) सत्यभामा भगवान के इस अनुराग को देखकर सन्तुष्ट और पुलकित हो गईं और कृष्णचन्द्रजी भी सत्यभामा को देखकर गद्गद् हो गए. श्री भगवान् ने कहा- कि हे देवि! वास्तव में इन सोलह हजार स्त्रियों के रहते हुए भी तुम मुझे प्राण के तुल्य प्यारी हो. तुम्हारे लिए (तुम्हारी कल्पवृक्षवाली जिद रखने के लिए) देवताओं के साथ इन्द्र से भी लड़ गया था. त्यभामा का हाथ
हे प्यारी! जो तुम पूछना चाहती हो तो वह बड़ी ही अद्भुत बात है. तुम्हें मैं जो किसी को न देने वाली (बहुमूल्य) वस्तु को भी दे देता हूं, न करने वाला काम भी करता हूं, छिपाने वाली बात भी कह देता हूं तो फिर मुझसे पूछने की आवश्यकता ही क्यों थी ? तुम्हारे मन में जो प्रश्न हो पूछो, मैं कहूंगा. सत्यभामा ने कहा-हे नाथ ! मैंने पूर्वजन्म में कौन-सा दान, व्रत अथवा तपस्या की थी जिसके प्रभाव से मैं संसार में पैदा होकर भी संसार की बाधाओं से मुक्त हूं और आपकी अर्द्धाङ्गिनी हूं. सर्वदा गरुड़ पर सवारी करती हूं, आपके साथ इन्द्रादिक देवताओं के यहां आपके जाने पर आपके साथ मैं भी जाती हूं.
यही मैं पूछती हूं कि मैंने उस जन्म में कौन-सा शुभ कर्म किया है ? पूर्वजन्म में मैं कौन थी, मेरा कैसा स्वभाव था और मैं किसकी पुत्री थी ? श्रीकृष्णचन्द्रजी ने कहा, हे प्रिये ! तुम सावधान होकर सुनो-मैं तुम्हारे पूर्वजन्म की कथा कहता हूं, उस जन्म में तुमने जिस पवित्र व्रत को किया था सो बतलाता हूं. जबकि सतयुग का अन्त हो रहा था, उस समय मायापुरी में एक अत्रिगोत्र वाला देवशर्मा नामक ब्राह्मण निवास करता था. वह समस्त वेदों तथा वेदाङ्गों में पारंगत, अतिथिपूजक, अग्निहोत्री तथा सूर्यनारायण का व्रत करता था. सर्वदा सूर्यदेव की उपासना करने के कारण वह दूसरे सूर्य की भांति देदीप्यमान था. उसको वृद्धावस्था में गुणवती नाम की एक कन्या उत्पन्न हुई. देवशर्मा को उस पुत्री के अतिरिक्त कोई सन्तान नहीं थी. उसने अपनी पुत्री का विवाह अपने एक शिष्य चन्द्र के साथ कर दिया. पुत्रविहीन देवशर्मा अपने शिष्य चन्द्र को अपने पुत्र के समान मानते थे और जितेन्द्रिय चन्द्र भी देवशर्मा को अपने पिता के सदृश समझता था|
एक दिन चन्द्र और देवशर्मा दोनों कुश और समिधा लाने के लिए वन में गए और इधर-उधर घूमते-घूमते हिमालय के समीप एक उपवन में पहुंच गए. तब उन्होंने एक विकराल राक्षस को अपनी ओर आते हुए देखा. उसे देखकर ये दोनों भय से व्याकुल हो गए. शरीर के अंग शिथिल हो गए और वे भागने में असमर्थ हो गए. यमस्वरूप उस राक्षस ने उन दोनों को मार डाला. हमारे गणों ने उस क्षेत्र के प्रभाव और उन दोनों के धार्मिक स्वभाव के कारण उन दोनों को बैकुण्ठधाम में पहुंचाया. जीवन भर उन दोनों ने जो सूर्यदेव का आराधन किया था, उसी से मैं उन पर बहुत प्रसन्न था.
हे प्रिये! शैव, सूर्योपासक, गणेश के पूजक, वैष्णव और शक्ति के पूजक, जैसे वर्षा का पानी समुद्र में गिरता है, उसी भांति ये सब अन्त में मेरे ही समीप आते हैं. अकेला मैं ही नाम और क्रिया के भेद से पांच रूपों में विभक्त हूं. जैसे किसी का नाम देवदत्त है, वही देवदत्त किसी का बाप है, किसी का पुत्र है, किसी का भाई है और किसी का भतीजा है. लेकिन वास्तव में यह देवदत्त एक ही है. अस्तु, सूर्य के समान तेजस्वी वे दोनों मेरे बैकुण्ठ में आकर रहने लगे. विमान पर यात्रा करते थे, उनका मेरे समान रूप था, वे मेरे ही समीप रहते थे और उनके शरीर में दिव्य चन्दन लगा रहता था|