Kanwar Yatra: कांवड़ यात्रा पर रोक, जानें क्या है इसका महत्व और इतिहास
कोविड महामारी के चलते कांवड़ यात्रा पर रोक लगा दी गई है।
कोविड महामारी के चलते कांवड़ यात्रा पर रोक लगा दी गई है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि शिवजी के प्रति अगाध आस्था और भक्तों के अनन्य प्रेम की प्रतीक यह यात्रा कब से शुरू हुई? क्यों इसकी शुरुआत हुई और इस कांवड़ यात्रा का महत्व और इतिहास क्या है?
ऐसे हुई थी कांवड़ यात्रा की शुरुआत
कांवड़ यात्रा को लेकर कई मान्यताएं प्रचलित हैं। इनमें से कुछ वेस्ट यूपी से भी जुड़ीं हैं। मान्यता है कि सबसे पहले भगवान परशुराम ने बागपत के पास स्थित पुरा महादेव मंदिर में कांवड़ से गंगाजल लाकर जलाभिषेक किया था। जलाभिषेक करने के लिए भगवान परशुराम गढ़मुक्तेश्वर से गंगाजल लेकर आए थे।
मर्यादा पुरुषोत्म श्रीराम ने किया था पहला जलाभिषेक
कांवड़ में जल भरकर सबसे पहले जलाभिषेक करने के बारे में कुछ अन्य मान्यताओं के अनुसार सबसे पहले मर्यादा पुरुषोत्म श्रीराम ने भोलेनाथजी का जलाभिषेक किया। कथा मिलती है कि श्रीराम ने बिहार के सुल्तानगंज से कांवड़ में गंगाजल भरकर बाबाधाम में शिवलिंग का जलाभिषेक किया था। कुछ विद्वानों का मानना है कि त्रेतायुग में श्रवण कुमार हिमाचल के उना क्षेत्र से अपने माता-पिता को कांवड़ में बैठाकर हरिद्वार लाए और उन्हें गंगा स्नान कराया था। वापसी में वे अपने साथ गंगाजल भी ले गए और इसे ही कांवड़ यात्रा की शुरुआत माना जाता है।
कांवड़ यात्रा का यह है इतिहास
पुराणों के अनुसार समुद्र मंथन से निकले विष को पी लेने के कारण भगवान शिव का कंठ नीला हो गया और वे नीलकंठ कहलाए। विष के प्रभाव को खत्म करने के लिए लंका के राजा रावण ने कांवड़ में जल भरकर बागपत स्थित पुरा महादेव में भगवान शिव का जलाभिषेक किया था। यहां से शुरू हुई कांवड़ यात्रा की परंपरा। वहीं कुछ के अनुसार विष के प्रभावों को दूर करने के लिए देवताओं ने सावन में शिव पर मां गंगा का जल चढ़ाया था और तब कांवड़ यात्रा का प्रारंभ हुआ।
कांवड़ यात्रा का महत्व
सावन में कांवड़ यात्रा का बहुत महत्व है। इस दौरान भक्तजन अपनी मनोकामना पूरी करने के लिए कांवड़ यात्रा पर निकलते हैं और भोलेनाथ को जल अर्पित करते हैं। मान्यता है कि इस महीने में भगवान शिव अपनी ससुराल राजा दक्ष की नगरी कनखल, हरिद्वार में निवास करते हैं। श्रीहरि विष्णु के शयन में जाने के कारण तीनों लोक की देखभाल भोलेनाथ स्वयं करते हैं। यही वजह है कि कांवड़िए सावन महीने में गंगाजल लेने हरिद्वार पहुंचते हैं।