बिलावलु ॥ राखि लेहु हम ते बिगरी ॥ सीलु धरमु जपु भगति न कीनी हउ अभिमान टेढ पगरी ॥१॥ रहाउ ॥ अमर जानि संची इह काइआ इह मिथिआ काची गगरी ॥ जिनहि निवाजि साजि हम कीए तिसहि बिसारि अवर लगरी ॥१॥ संधिक तोहि साध नही कहीअउ सरनि परे तुमरी पगरी ॥ कहि कबीर इह बिनती सुनीअहु मत घालहु जम की खबरी ॥२॥६॥
हे प्रभु! मेरी लाज रख ले। मुझसे बहुत बुरा काम हुआ ही कि ना तो मैंने अच्छा सवभाव बनाया, ना ही मैंने जीवन का फर्ज कमाया, और ना तेरी बंदगी कि, तेरी भक्ति की। मैं सदा अहंकार करता रहा, और गलत रहा पड़ा रहा हूँ (टेढ़ा-पण पकड़ा हुआ है)।१।रहाउ। इस सरीर को कभी ना मरने वाला समझ कर मैं इस को सदा पलता रहा, (यह सोच कभी ना आई की ) यह सरीर कच्चे घड़े की तरह नाशवंत है। जिस प्रभु ने कृपा कर के मेरा यह सुंदर सरीर बना कर मुझे पैदा किया, उस को बिसार के मैं और दूसरी तरफ लगा रहा।१। (सो) कबीर कहता है-(हे प्रभु!) में तेरा चोर हूँ, में भाल नहीं कहलवा सकता। फिर बी (हे प्रभु!) मैं तेरे चरणों की सरन आ पड़ा हूँ, मेरी यह अरजोई सुन, मुझे यमों की सोई मत भेजना (भावार्थ, मुझे जनम मरण के चक्र में ना पड़ने दे