जीवन में सफलता और आर्थिक दृष्टि से उन्नति होने के लिए अपनाएं यह चौथा तत्व
जीवन में सफलता प्राप्ति का चौथा तत्व है ‘समताभाव’, यानी मानसिक संतुलन।
जनता से रिश्ता वेबडेस्क: जीवन में सफलता प्राप्ति का चौथा तत्व है 'समताभाव', यानी मानसिक संतुलन। मन में किसी तरह से छोटे-बड़े की भावना नहीं होनी चाहिए। मानसिक संतुलन के लिए हमें सभी जीवों, सभी मनुष्यों के साथ समान व्यवहार करना चाहिए। किसी भी प्रकार का मानसिक बंधन एक मानसिक बीमारी है। स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ समझना एक गंभीर दोष है। इसी प्रकार किसी से अपने को हीन समझना एक गंभीर त्रुटि है। हीन भाव से ग्रस्त होना भी एक मानसिक रोग है। हमें न तो हीनता बोध और न ही श्रेष्ठता बोध को प्रश्रय देना चाहिए। हमें मानसिक संतुलन बनाए रखना चाहिए। संतुलित मन ईश्वर की ओर बढ़ने में सक्षम होगा।
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निरक्षर व्यक्तियों से साक्षर, यानी शिक्षित व्यक्ति हमेशा स्वयं को श्रेष्ठ मानता है। यह स्वाभाविक है। मान लो कि हमें किसी ने मारा और हमने भी जवाब में मारा। इस स्थिति में हमने मारने वाले की क्रिया को पचाया नहीं, बल्कि प्रतिक्रिया की। यदि हम बुद्धिमान हैं तो हम आक्रमण सह लेंगे। यहां सहन करने का अर्थ है, शत्रु की शक्ति का अनुमान करना। सहन करने का तात्पर्य मात्र सहन करने के उद्देश्य से नहीं, बल्कि अपने को समाहित करना और शत्रु को नियंत्रित करना से भी है। इस बीच हमारे शत्रु की शक्ति क्षीण होगी। प्रत्येक व्यक्ति को सहन शक्ति बढ़ाने का अभ्यास करना फायदेमंद होता है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि हम अनंतकाल तक सहन करते रहेंगे। सहन करना कोई आदर्श अभ्यास नहीं है बल्कि उचित शक्ति संचय और फिर उसके प्रयोग के लिए भी उचित है।
इसके बाद उन्हें सम्मान देना हमारा कर्तव्य है जो अन्यत्र सम्मान नहीं पाते। लाखों-लाख लोग इस विश्व में हैं, पर उनमें से निन्यानबे प्रतिशत लोग ऐसे हैं, जिन्हें सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं दी जाती। पहले तो समाज उन्हें महत्व नहीं देता या देना नहीं चाहता। दूसरा तत्व यह है कि वे आर्थिक रूप से दुर्बल हैं। तीसरा तत्व यह है कि उनमें शिक्षा का अभाव है। यदि हम किसी को उचित स्थान देना चाहते हैं तो उन्हें महत्व देना होगा, आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर बनाना पड़ेगा और उन्हें शिक्षित करना पड़ेगा। प्रत्येक मनुष्य को आदर देना धर्म का अनिवार्य अंग है। यदि हम किसी का आदर करते हैं तो उनके लिए उचित शिक्षा व्यवस्था करके उनका ज्ञान विस्तार करें। ऐसी व्यवस्था की जाए कि वे सामाजिक रूप में उन्नत हों, आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर हों और आत्मगौरव के साथ अपना सिर ऊंचा करके जी सकें। कोई भी ऊंच या नीच जाति का नहीं है। हिंदू-मुसलमान का भेद धर्म के आधार पर सर्वथा अनुचित है। मनुष्य मात्र एक ही प्रजाति के हैं और वे सभी परमात्मा की संतान हैं। इसलिए सबको समान सामाजिक सम्मान मिलना चाहिए।
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तीसरा तत्व है उनकी आर्थिक व्यवस्था की देखरेख करना ताकि वे उचित रूप में अन्न, वस्त्र, उचित शिक्षा और उचित चिकित्सा प्राप्त कर सकें। इससे सभी बिना किसी अन्य की कृपा से सम्मान पूर्वक उन्नत जीवन-यापन कर सकेंगे। इस प्रकार यदि मनुष्य को हम आदर देना चाहते हैं, तो उनके लिए शिक्षा, सम्मान और आर्थिक आत्मनिर्भरता का उपाय करना होगा। ऐसे प्रयासों के माध्यम से हममें समताभाव उत्पन्न होगा।
प्रस्तुति: दिव्यचेतनानन्द अवधूत