किताब, जो मानवता पर हमारे विश्वास को और पुख़्ता करती है
यह ह्यूमन साइकोलॉजी है, बीते कालखंड का गौरवगान करना, परंपरा
साहित्य | इतिहास यानी बीता हुआ हमारे साथ बना रहता है. लोग अपने-अपने तरीक़े से बीते हुए समय का आकलन करते हैं. कई बार बीता हुआ समय कितना भी दुखद क्यों न रहा हो, उसे याद करते समय ज़ुबां पर एक मिठास आ जाती है. वहीं वर्तमान समय से शिकायत हममें से ज़्यादातर को रहती ही है. यह ह्यूमन साइकोलॉजी है, बीते कालखंड का गौरवगान करना, परंपरा, सभ्यता और संस्कृति का बखान करना हम सभी को सुहाता है. हमने-आपने यह कई बार कहा होगा, सुना होगा कि दुनिया कितनी स्वार्थी, आत्मकेंद्रित हो रही है. पहले वाली बात अब कहां रही? कहने का मतलब होता है कि दुनिया तेज़ी से बुरी बन रही है. यहां रहना दिनों-दिन मुश्क़िल होता जा रहा है.
इतिहास को देखने-समझने और उसकी व्याख्या करने की एक दूसरी धारा है, अतीत की हर घटना को पूर्णत: निराशावादी दृष्टिकोण से देखना. इतिहास को इस चश्मे से देखनेवालों का यह मानना होता है कि हम इंसानों के पूर्वज हिंसक, क्रूर और आततायी ही थे. चार्ल्स डार्विन के सर्वाइवल ऑफ़ फ़िटेस्ट से लेकर बीसवीं सदी में किए गए कई मशहूर शोधों, परीक्षणों को आधार बनाकर ऐसी बातें की जाती रही हैं. मानव जाति के बारे में यह पुख़्ता धारणा बनी है कि वह हद दर्जे का स्वार्थी और लालची है. मौक़ा मिलने पर वह बुरे से बुरा काम कर सकता है.
इतिहास को देखने के ये दोनों परस्पर विरोधी नज़रिए कितने सही हैं? क्या यह तथ्यों पर आधारित हैं या अपनी बनी-बनाई धारणाओं के चलते हम ऐसा कहते हैं? इन धारणाओं की सच्चाई पर से रुत्ख़ेर ब्रेख़्मान अपनी विश्वसनीय दलीलों की मदद से रौशनी डाल रहे हैं. इतिहास और वर्तमान को देखने के इन्हीं दो परस्पर विषम नज़रिए की संतुलित पड़ताल करती है रुत्ख़ेर ब्रेख़्मान की किताब ह्यूमनकाइंड ‘मानव