एक के पास 'कलम' की ताकत तो दूसरा 'बंदूक' की नोक पर रखता था दुश्मन के नापाक इरादे
नई दिल्ली: 'बनाना है हमें अब अपने हाथों अपनी किस्मत को, हमें अपने वतन का आप बेड़ा पार करना है।' ये कुछ पंक्तियां उनके लिए हैं, जो कलम और बंदूक की ताकत से वाकिफ नहीं। आधुनिक हिंदी साहित्य के 'पितामह' कहे जाने वाले भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और भारतीय सेना के 'शेरशाह' विक्रम बत्रा के बहादुरी के किस्से एक बार जान लीजिए, तब आपको भी इस बात का आभास हो जाएगा की चाहे कलम की नोक हो या बंदूक की, शिद्दत से चलती है तो दुश्मनों की नींद उड़ा कर रख देती है।
भारत मां के इन शेरों में से एक ने कलम से अंग्रेजों को छठी का दूध याद दिलाया तो दूसरे ने भारतीय सरजमीं पर घुसपैठ करने वाले दुश्मनों की सीना गोलियों से छलनी कर दिया था। आज भारत मां के उन्हीं दो वीर सपूतों की जयंती है, चलिए उनकी बहादुरी के कुछ हिस्सों को याद कर गौरवान्वित होते हैं।
कैप्टन विक्रम बत्रा (9 सितंबर 1974- 07 जुलाई 1999): हिमाचल प्रदेश के पालमपुर में 9 सितंबर 1974 को जन्मे विक्रम बत्रा का खुशमिजाज अंदाज काफी अलग था। विक्रम बत्रा भारतीय सेना के वो ऑफिसर थे, जिन्होंने कारगिल युद्ध में अभूतपूर्व वीरता का परिचय देते हुए वीरगति प्राप्त की। शुरुआत में मर्चेंट नेवी की ओर उनका लगाव था लेकिन बाद में उन्होंने इंडियन आर्मी में जाने का फैसला किया। भारत मां का ये वीर सपूत अंतिम सांस तक कारगिल की जंग में लड़ता रहा। जिसके बाद उन्हें वीरता सम्मान परमवीर चक्र से भी सम्मानित किया गया।
बत्रा की लेफ्टिनेंट के पोस्ट पर जॉइनिंग हुई थी। दो साल के अंदर ही वो कैप्टन बन गए। उसी वक्त कारगिल वॉर शुरू हो गया। ये सब कुछ इतनी जल्दी-जल्दी हुआ की हर कोई दंग था लेकिन अपनी बहादुरी के दम पर विक्रम आगे बढ़ते रहे। उनकी लव स्टोरी भी बेहद खास थी।
विक्रम का एक डायलॉग बहुत फेमस था-, ‘ये दिल मांगे मोर।’ जो लगभग हर कामयाब ऑपरेशन के बाद इसे दोहराते थे। खासियत ये थी कि अभियान को लीड करते थे और अपने साथियों पर आंच भी नहीं आने देते थे। जब तक जिंदा रहे, तब तक अपने साथी सैनिकों की जान बचाते रहे। प्वाइंट 5140 और प्वाइंट 4875 को दुश्मनों के कब्जे से छुड़ाना उनकी बहादुरी के किस्सों में शामिल है।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (9 सितंबर 1850- 6 जनवरी,1885): आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह को भला कौन नहीं जानता। भाषा को सुघड़ बनाने, उसे नई कलेवर में ढालने और अभद्रता की चादर उतार फेंकने का काम किसी ने किया तो भारतेन्दु हरिश्चन्द ने। ठेठ बनारसी जिन्होंने अपनी कलम के दम पर अंग्रेजी हुकूमत की चूलें हिला दी। आधुनिक हिंदी साहित्य का प्रारंभ ही इनसे माना जाता है।
उस समय जब देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था। भारतेन्दु हिन्दी में आधुनिकता के पहले रचनाकार थे। अंग्रेजी शासन में अंग्रेजी भाषा का बोलबाला था। भारतीय लोगों में विदेशी सभ्यता के प्रति आकर्षण था।
हिन्दी के प्रति लोगों में आकर्षण कम था, क्योंकि अंग्रेजी की नीति से हमारे साहित्य पर बुरा असर पड़ रहा था। ऐसे समय में ही भारतेंदु युग का सूत्रपात हुआ। एक रचनाकार जिसकी लेखनी ने विदेशी हुकूमत का पर्दाफाश किया और देश को 'अंग्रेजी' और अंग्रेजों की असलियत दिखाई।
काशी में जन्मे भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को काव्य-रचना विरासत में मिली थी, उन्होंने पांच वर्ष की अवस्था से ही लिखना शुरू कर दिया था। कवियों में से एक हैं जिन्होंने जितनी गहराई से ईश्वर-भक्ति के बारे में लिखा, उतनी ही गहनता से सामाजिक समस्याओं पर भी लिखा। वह अपनी गजलों को 'रसा' के नाम से लिखा करते थे और उन्होंने लगभग हर रस में अपनी काव्य-रचना की।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और विक्रम बत्रा के बीच एक ही दिन जन्मदिन के अलावा एक और चीज ऐसी थी, जो दोनों दिग्गजों के बीच एक खास कनेक्शन जोड़ती है। बता दें, ये दोनों भारत के वीर सपूत अपनी बहादुरी के किस्सों के साथ-साथ अपनी-अपनी लव स्टोरी के लिए भी मशहूर हैं।