भारतीय पोलो के लिए 25 अगस्त का दिन है खास, सुनहरे अक्षरों में दर्ज है नाम

Update: 2024-08-25 05:16 GMT
नई दिल्ली: मॉर्डन पोलो गेम की शुरुआत भारत में हुई थी। ये खेल मणिपुर से ताल्लुक रखता है। धीरे-धीरे खेल के प्रति आकर्षण बढ़ा तो सीमाएं टूटीं और भारत से बाहर भी दर्शकों और खिलाड़ियों की संख्या बढ़ी। घोड़ों पर सवार होकर बॉल को स्टिक से पास करने वालों को एक विशेष दर्जा प्राप्त हुआ। ये शाही कैटेगरी में आया।
पोलो का नाम सुनते ही हर वो शाही खेल याद आ जाता है जो कभी किसी ने देखा हो। राजाओं का खेल कहलाने वाले पोलो को पहले सिर्फ राजघरानों और सेना के लिए ही आरक्षित रखा जाता था। लेकिन इस खेल में हाल ही में हुए विकास ने समाज के सभी वर्गों के लोगों के लिए इस बहुप्रतीक्षित खेल को सीखने, तराशने और उसमें महारत हासिल करने के दरवाजे खोल दिए हैं। इस खेल ने वर्षों तक कई उतार-चढ़ाव देखे हैं, इसके बावजूद इसने अपनी श्रेष्ठता और अपना ये अनोखा अंदाज बरकरार रखा।
पोलो एक टीम खेल है जिसे घोड़े पर बैठ कर खेला जाता है, जिसमें प्रतिद्वंद्वी टीम के खिलाफ गोल करना होता है। ब्रिटिश काल के दौरान यह खेल काफी मशहूर था। भारत के इतिहास में 25 अगस्त और इस खेल के बीच एक खास कनेक्शन है। भारत में पोलो की खेल भावना, सफलता और गौरव का एक यादगार दौर रहा है। पोलो का स्वर्णिम काल कहे जाने वाले उस दौर को खिलाड़ी समेत पूरा भारत बड़े प्यार से याद करता है।
1957 और 1975 में आज ही के दिन भारत पोलो विश्व विजेता बना था। भारत ने फ्रांस में हुए पोलो विश्व चैम्पियनशिप फाइनल का खिताब अपने नाम किया था। 1957 में भारत ने फ्रांस में विश्व चैम्पियनशिप में भाग लेने के लिए एक आधिकारिक पोलो टीम भेजी थी।
मेजर कृष्ण सिंह, राव राजा सिंह और जयपुर के महाराजा सवाई मान सिंह की टीम ने अन्य सभी टीमों को हराकर चैम्पियनशिप जीती थी। जिसमें इंग्लैंड, अर्जेंटीना, स्पेन के कई महान खिलाड़ी शामिल थे। 1975 में भी भारत का प्रदर्शन शानदार रहा।
भारत में ब्रिटिश शासन से पहले और उसके दौरान, राजस्थान का अधिकांश भाग राजपूत साम्राज्यों के अधीन था। उस समय यह क्षेत्र राजपूताना के नाम से जाना जाता था, जो आज भी अतीत की शाही परंपराओं और विरासत को संजोए हुए है। दिलचस्प बात यह है कि इस क्षेत्र में पोलो की मौजूदगी आज भी रिकॉर्ड तोड़ रही है।
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