लखनऊ: सूत्रों का कहना है कि हाईकोर्ट के फैसले से हुई किरकिरी से सरकार नाराज है। इसका खामियाजा जिम्मेदार अधिकारियों को उठाना पड़ सकता है। चूक के लिए जल्द ही अधिकारियों की जिम्मेदारी तय की जाएगी। प्रक्रिया से जुड़े अधिकारियों पर कार्रवाई तय मानी जा रही है। उधर, इसकी भनक लगते ही अपनों को बचाने के लिए उच्च स्तर पर लीपापोती शुरू हो गई है।
2017 में नगर निकाय चुनाव के लिए 27 अक्तूबर को अधिसूचना जारी की गई थी और तीन चरणों में संपन्न हुए चुनाव की मतगणना 1 दिसंबर को हुआ था। इस लिहाज से इस वर्ष भी समय पर चुनाव कराने केलिए सरकार को अक्तूबर में ही अधिसूचना जारी करनी थी, लेकिन नगर विकास विभाग की लचर तैयारी से चुनाव प्रक्रिया देर से शुरू हुई।
वार्डों और सीटों के आरक्षण दिसंबर में हुआ। पांच दिसंबर को मेयर और अध्यक्ष की सीटों का प्रस्तावित आरक्षण जारी किया गया। नगर विकास विभाग यह मान कर चल रहा था कि 14 या 15 दिसंबर तक वह चुनाव आयोग को कार्यक्रम सौंप देगा, लेकिन मामला हाईकोर्ट में फंस गया।
रैपिड सर्वे से लेकर आरक्षण की अधिसूचना जारी करने को लेकर कई स्तरों पर हुई चूक हुई। सूत्रों के मुताबिक हर बार निकाय चुनाव में स्थानीय निकाय की महत्वपूर्ण भूमिका होती है, लेकिन इस बार रैपिड सर्वे से लेकर आरक्षण तय करने तक की प्रक्रिया से निदेशालय को दूर रखा गया, जो बड़ी चूक है। इस काम में अनुभवी के स्थान पर नए अधिकारियों को लगा दिया गया।
नगर विकास विभाग ने सुप्रीम कोर्ट के वर्ष 2010 में दिए उस फैसले का भी ध्यान नहीं रखा, जिसमें स्पष्ट निर्देश थे कि चुनाव प्रक्रिया शुरू करने से पहले आयोग का गठन कर अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए वार्डों और सीटों का आरक्षण किया जाए। विभाग ने सिर्फ नए नगर निकायों में रैपिड सर्वे कराते हुए पिछड़ों की गिनती कराई और आरक्षण तय कर दिया। पुराने निकायों में रैपिड सर्वे ही नहीं कराया।