जातीय गणना के 'तीर' से नीतीश ने अपनों और गैरों पर साधे निशाने!

Update: 2023-10-08 05:32 GMT
पटना: अगले साल संभावित लोकसभा चुनाव के लिए एनडीए और इंडिया दोनों गठबंधन अपनी रणनीति के मुताबिक योजना बनाकर मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश में जुट गए हैं। भाजपा ने जहां संसद का विशेष सत्र बुलाकर महिला आरक्षण विधेयक पास करवाने की चाल चली, ववहीं बिहार में जातीय गणना कराकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने देश की सियासत में नई लकीर खींच दी है।
इसमें कोई शक नहीं कि नीतीश सामाजिक समीकरण के माहिर खिलाड़ी माने जाते हैं। जोड़ तोड़ और समीकरण को साधते हुए नीतीश कम सीट होने के बावजूद भी बिहार में बतौर मुख्यमंत्री 18 साल से काबिज हैं। जातीय जनगणना को भी इसी रणनीति से जोड़कर देखा जा रहा है। कहा जा रहा है कि नीतीश ने अगले लोकसभा और 2025 में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए अपने तरकश से अंतिम तीर चला दी है। नीतीश ने पहले भाजपा के विरोधी दलों को एकजुट किया और फिर जातीय जनगणना की रिपोर्ट जारी कर दी। इसमें कोई दो मत नहीं कि बिहार में होने वाले चुनाव में जाति बहुत बड़ा रोल प्ले करता है। भाजपा महिला आरक्षण जैसे संवेदनशील मुद्दे और धर्म के मुद्दे को लेकर अपनी रणनीति साफ कर चुकी है।
माना जा रहा है कि नीतीश ने चुनावी जनगणना के मास्टर स्ट्रोक से न केवल भाजपा को बल्कि अपने सहयोगी दलों को भी एक सीमा में बांध कर रखने की कोशिश की है। माना जाता है कि राजद का वोट बैंक यादव - मुस्लिम समीकरण है ऐसे में नीतीश ने इस गणना के जरिए मुस्लिम मतदाताओं और अत्यंत पिछड़े वर्ग (ईबीसी) को भी साधने की कोशिश की है।
जाति सर्वेक्षण के अनुसार, बिहार की आबादी में ईबीसी का प्रतिशत 36 है वहीं, यादवों की आबादी 14 प्रतिशत हैं। बिहार की राजनीति के जानकार मणिकांत ठाकुर कहते हैं कि जातीय गणना विशुद्ध सियासी चाल है। उन्होंने साफ लहजे में कहा कि नीतीश कुमार इसके जरिए राजनीति में अपनी कमजोर पड़ रही आभा को फिर से राष्ट्रीय स्तर पर चमकाने की कोशिश कर रहे हैं।
उन्होंने कहा कि नीतीश की यह चाल भाजपा के हिंदू ध्रवीकरण को रोकना है। उन्होंने कहा कि नीतीश सियासी लाभ के लिए पहले भी जातियों को बांटते रहे हैं, एक बार फिर उन्होंने जातियों को वर्गों में बांटकर सियासी लाभ लेने की कोशिश की है।
ठाकुर हालांकि यह भी कहते हैं कि इस गणना की रिपोर्ट पर न केवल सवाल उठाए जा रहे हैं बल्कि इसके बाद जिसकी जितनी आबादी उसकी उतनी हिस्सेदारी को लेकर भी आवाज बुलंद हो रहे हैं। ऐसी स्थिति में अगर हिस्सेदारी की आवाज और तीव्र हुई तो बिहार में सत्तारूढ़ महागठबंधन को मुश्किल भी आ सकती है। ठाकुर आगे यह भी मानते हैं कि भाजपा सबका साथ और सबका विकास तथा राष्ट्रवाद के मुद्दे को हवा देकर भी इस जातीय समीकरण की काट खोज सकती है। बहरहार, नीतीश कुमार ने बिहार में जातीय जनगणना की रिपोर्ट जारीकर लोकसभा चुनाव के पहले एक बड़ी चाल चल दी है, जिसका कितना फायदा होता है इसके लिए तो अभी इंतजार करना पड़ेगा।
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