कोलकाता(आईएएनएस)। पश्चिम बंगाल में 2019 के लोकसभा चुनाव नतीजे कई लोगों के लिए आश्चर्यचकित करने वाले रहे। भाजपा राज्य की 42 सीटों में से 18 जीतकर सबसे मजबूत विपक्षी दल के रूप में उभरी, जिससे सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस 22 सीटों पर और कांग्रेस दो पर सिमट कर रह गई। वहीं, माकपा के नेतृत्व वाला वाम मोर्चा खाता भी नहीं खोल सका। पश्चिम बंगाल में त्रिस्तरीय पंचायत प्रणाली के लिए 2018 के चुनावों में भाजपा के प्रमुख विपक्षी दल के रूप में उभरने के संकेत मिले थे क्योंकि उसने कांग्रेस और वाम मोर्चा गठबंधन को पीछे छोड़ दिया था जिन्होंने वह चुनाव अलग-अलग लड़ा था। हालांकि इस साल पंचायत चुनावों में दोनों का गठबंधन था। उस समय किसी ने सोचा भी नहीं था कि 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा 18 सीटों पर कब्जा करने में कामयाब होगी।
उस समय भाजपा के इस जबरदस्त उभार की कई व्याख्याएं सामने आईं। एक तर्क यह था कि कई उत्साही तृणमूल कांग्रेस के मतदाताओं ने सत्ताधारी पार्टी द्वारा की गई भारी हिंसा के कारण गुस्से में आकर "कमल" के निशान पर वोट दिया। दूसरा तर्क यह था कि माकपा के कई समर्पित मतदाताओं ने इस भावना के साथ कि जिस पार्टी का वे समर्थन करते हैं वह उन्हें सत्तारूढ़ पार्टी के हमले से बचाने में सक्षम नहीं होगी, राष्ट्रीय स्तर पर सबसे मजबूत पार्टी से सुरक्षा पाने की उम्मीद के साथ भाजपा को चुना। अब 2023 के ग्रामीण निकाय चुनावों में तृणमूल कांग्रेस की प्रचंड जीत के साथ सवाल यह है कि क्या भाजपा 2024 की बड़ी लड़ाई में राज्य में अपनी पकड़ बना पाएगी या बंगाल की धरती सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के लिए हरी-भरी बनी रहेगी।
तृणमूल कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव और लोकसभा सदस्य अभिषेक बनर्जी 2023 के ग्रामीण निकाय चुनावों के नतीजों से उत्साहित दिख रहे हैं। पश्चिम बंगाल विधानसभा में विपक्ष के नेता शुभेंदु अधिकारी द्वारा लगाए गए 'नो वोट टू ममता' (ममता को वोट नहीं) के नारे का उपहास उड़ाते हुए बनर्जी ने कहा कि यह 'नाउ वोट फॉर ममता' (अब ममता के लिए वोट) हो गया है। दूसरी ओर, अधिकारी ने दावा किया है कि सत्ताधारी दल द्वारा की गई भारी हिंसा को देखते हुए नतीजे किसी भी तरह से मतदातों की नब्ज का सही प्रतिबिंब नहीं हैं। चुनावी हिंससा में बुधवार दोपहर तक कुल 42 लोगों की जान चली गई है। उन्होंने कहा, “लोग 2019 की तरह ही तृणमूल कांग्रेस को करारा जवाब देंगे, क्योंकि लोकसभा चुनाव व्यापक सुरक्षा घेरे में होंगे और कई चरणों में होंगे, जहां सत्तारूढ़ पार्टी के गुंडे इस तरह से हिंसा नहीं कर पाएंगे।”
राज्य कांग्रेस अध्यक्ष और लोकसभा सदस्य अधीर रंजन चौधरी और माकपा केंद्रीय समिति के सदस्य सुजन चक्रवर्ती, दोनों का मानना है कि 2024 का लोकसभा चुनाव न तो तृणमूल कांग्रेस के लिए और न ही भाजपा के लिए आसान होगा। उनका दावा है कि नगर निकाय चुनावों के नतीजे साबित करते हैं कि वाम मोर्चा और कांग्रेस दोनों का प्रदर्शन, एकजुट होकर लड़ने में सक्षम होने के कारण 2018 के पंचायत चुनावों के बाद से पिछले सभी चुनावों की तुलना में काफी बेहतर था। उन्होंने यह भी दावा किया कि 2023 में सत्तारूढ़ दल के खिलाफ जो भी प्रतिरोध खड़ा हुआ वह कांग्रेस, वाम मोर्चा और उनके सहयोगी अखिल भारतीय धर्मनिरपेक्ष मोर्चा की ओर से था, न कि भाजपा की ओर से।
अब, 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए पश्चिम बंगाल में भाजपा की संभावनाओं के बारे में दो तरह की दलीलें हैं। एक हद तक विपक्ष के नेता का तर्क सही है कि 2023 में चुनावी हिंसा का शिकार होने वाले पीड़ित मतदाता सत्तारूढ़ दल को सबक सिखाने के लिए उसके खिलाफ बड़े पैमाने पर मतदान कर सकते हैं। दूसरे जैसा कि कई राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि आने वाले दिनों में तृणमूल कांग्रेस के नेताओं पर केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) और प्रवर्तन निदेशालय जैसी केंद्रीय एजेंसियों का दबाव निस्संदेह बढ़ेगा और अधिक प्रभावशाली नेता निशाने पर आ जाएंगे। उस स्थिति में, सत्तारूढ़ दल के लिए एक ही समय में दोहरी एजेंसी और चुनाव दबाव को संभालना अधिक कठिन होगा।
हालांकि, इसके काट में तर्क यह है कि 2023 के ग्रामीण निकाय चुनावों के नतीजे स्पष्ट संकेत देते हैं कि वाम मोर्चा और कांग्रेस दोनों न केवल पिछले कुछ चुनावों में अपने वोट बैंकों में गिरावट को रोकने में सक्षम हैं, बल्कि उन्हें काफी हद तक पुनर्जीवित करने में भी सफल रहे हैं। राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि अब यह तय निष्कर्ष है कि कांग्रेस और वाम मोर्चा 2024 के चुनावों में सीट-बंटवारे पर समझौता करेंगे। कांग्रेस और वाम मोर्चा जितनी ताकत हासिल करेंगे, विपक्ष में उतना ही विभाजन होगा और स्थिति भाजपा के लिए कठिन और तृणमूल कांग्रेस के लिए उतनी ही फायदेमंद होगी।