क्यों बढ़ रही है स्कूल बीच में छोड़ने की प्रवृत्ति

Update: 2023-06-05 08:02 GMT

- ललित गर्ग -

भारत में स्कूली शिक्षा में छात्र-छात्रों के ड्रॉपआउट्स की संख्या बढ़ना न केवल शिक्षा-व्यवस्था पर बल्कि स्कूल-प्रबंधकों पर एक बड़ा सवाल बनता जा रहा है। स्कूल न जाने वाले बच्चों की संख्या आठ करोड़ से भी ज्यादा है, जो यह बताने के पर्याप्त है कि स्थिति काफी गंभीर है। अब एक बार फिर केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय की ओर से सन् 2022 की बोर्ड परीक्षाओं के विश्लेषण में बताया गया है कि दसवीं और बारहवीं के स्तर पर देश में लाखों बच्चे पढ़ाई छोड़ देते हैं। विश्लेषण के मुताबिक, पिछले साल पैंतीस लाख विद्यार्थी दसवीं के बाद ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ने नहीं गए। इनमें से साढ़े सत्ताइस लाख सफल नहीं हुए और साढ़े सात लाख विद्यार्थियों ने परीक्षा नहीं दी। इसी तरह, पिछले साल बारहवीं के बाद 2.34 लाख विद्यार्थियों ने बीच में पढ़ाई छोड़ दी। इनमें से सतहत्तर फीसद ग्यारह राज्यों से थे। यानी करीब अट्ठावन लाख विद्यार्थी दसवीं और बारहवीं में पढ़ाई छोड़ देते हैं तो यह किसी भी सरकार के लिए बेहद चिंता की बात होनी चाहिए और यह समग्र शिक्षा व्यवस्था से लेकर सरकारी कल्याण कार्यक्रमों के जमीनी स्तर पर अमल पर सवालिया निशान है।

किसी भी देश की शिक्षा व्यवस्था की कामयाबी इसमें है कि शुरुआती से लेकर उच्च स्तर तक की शिक्षा हासिल करने के मामले में एक निरंतरता हो। अगर किसी वजह से आगे की पढ़ाई करने में किसी विद्यार्थी के सामने अड़चनें आ रही हो तो उसे दूर करने के उपाय किये जाएं। लेकिन बीते कई दशकों से यह सवाल लगातार बना हुआ है कि एक बड़ी तादाद में विद्यार्थी स्कूल-कॉलेजों में बीच में ही पढ़ाई छोड़ देते हैं और उनकी आगे की पढ़ाई को पूरा कराने के लिए सरकार की ओर से ठोस उपाय नहीं किए जाते। इस मसले पर सरकार से लेकर शिक्षा पर काम करने वाले संगठनों की अध्ययन रपटों में अनेक बार इस चिंता को रेखांकित किया गया है, लेकिन अब तक इसका कोई सार्थक हल सामने नहीं आ सका है।

तमाम सरकारी प्रयासों एवं योजनाओं के शिक्षा महंगी होती जा रही है, निजी स्कूलों में बच्चों को पढ़ाना बहुत मुश्किल होता है, कोई परिवार हिम्मत करके निजी स्कूलों में प्रवेश दिलाते भी है जो आर्थिक मजबूरी के कारण उन्हें बीच में बच्चों को स्कूल से निकाल लेने को विवश होता पड़ता है। हम और आप अपनी असल ज़िंदगी में रोज़ाना ऐसे बच्चों से मिलते होंगे जो स्कूल से बाहर होटलों में काम करते हुए, जानवरों को चराते हुए या फिर परिवार के साथ शहरों में काम करते हुए दिखाई देते हैं। वहीं बहुत से बच्चे गाँव और गली मोहल्लों में दिनभर घूमते रहते हैं, या फिर परिवार के साथ खेतों पर काम करने जाते हैं, या फिर बाज़ार में सब्जी बेचने या फिर जंगल में लकड़ियां काटने के लिए जाते हैं। छात्रों के फेल होने, शरारत या फीस जमा नहीं होने पर कार्रवाई के चलते बच्चों को स्कूल छोड़ने पर भी विवश होना पड़ता है। विशेषतः आदिवासी, दलित एवं अन्य पिछड़ी जाति के बच्चों को स्कूली शिक्षा बीच में छोड़ने की स्थितियां बढ़ती जा रही है, जो आजादी के अमृतकाल में चिन्ता का एक बड़ा कारण है।

सरकार की बड़ी-बड़ी योजनाओं के बीच छात्रों के स्कूल छोड़ने की स्थितियों को गंभीरता से लेना होगा। शिक्षा को पेचिदा बनाने की बजाय सहज एवं रोचक बनाना होगा। ताकि कुछ बच्चों को स्कूल बोरिंग न लगे है, 9वीं और 10वीं कक्षा तक आते-आते कई बच्चों को स्कूल बोरिंग लगने लगता है। इस कारण वे स्कूल देरी से जाना चाहते हैं, क्लास बंक कर देते हैं और लंच ब्रेक में बैठे रहते हैं। पढ़ाई और स्कूल से लगाव ना होने की वजह से अक्सर बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं। किसी भी वजह से बच्चे का स्कूल या पढ़ाई छोड़ने का मन करना, पैरेंट्स के लिए एक बड़ी परेशानी है, लेकिन यह शिक्षा की एक बड़ी कमी की ओर भी इशारा भी करता है।

बच्चों को स्कूल भेजे जाने का उद्देश्य शिक्षा ग्रहण कर एक अच्छा नागरिक बनना तो है ही, शिक्षा विकोपार्जन में भी प्रमुख भूमिका निभाती है। लेकिन मौजूदा समय में ज्यादातर स्कूल प्रबंधन इसे एक व्यवसाय के रूप में देखने लगे हैं, सरकारें भी शिक्षा की जिम्मेदारी से भाग रही है, भारत में शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के बाद ज़मीनी स्तर पर बहुत सारी चीज़ें बदली हैं। मसलन स्कूलों में बच्चों का नामांकन बढ़ा है। हर साल आठवीं पास करने वाले बच्चों की संख्या के आँकड़े तेज़ी से बढ़े हैं। पर इसके साथ ही शिक्षा में गुणवत्ता और स्कूल में बच्चों के ठहराव का सवाल ज्यों का त्यों कायम है। स्कूल आने के बावजूद घरेलू आर्थिक मजबूरियों के कारण काम करने को मजबूर 78 लाख बच्चों की मौजूदगी भारत में प्राथमिक शिक्षा की बदहाली की कहानी दोहराती है।

सरकारी योजनाओं एवं नीतिगत स्तर पर शिक्षा को उच्च प्राथमिकता मिलती दिखती है, बावजूद इसके स्कूली शिक्षा में बीच में पढ़ाई छोड़ने की प्रवृत्ति नीतिगत स्तर पर नाकामी या फिर उदासीनता का ही सूचक है। यह समझना मुश्किल है कि इतने लंबे वक्त से यह चिंता कायम है फिर क्यों नहीं इस मसले पर किसी हल तक पहुंचना एक ऐसा सवाल है जिस पर व्यापक चिन्तन-मंथन जरूरी है। यह जगजाहिर है कि एक ओर स्कूल-कालेज में शिक्षा पद्धति में तय मानक बहुत सारे विद्यार्थियों के लिए सहजता से ग्राह्य नहीं होते, वहीं पढ़ाई में निरंतरता नहीं रहने के पीछे सामाजिक और आर्थिक कारक भी एक बड़ी भूमिका निभाते हैं। लगातार शिक्षा मन्दिरों में मूलभूत सुविधाओं का अभाव भी बच्चों को स्कूलें छोड़ने पर विवश करते हैं। शिक्षा का अधिकार कानून आने के बाद भी भारत में सिंगल टीचर स्कूलों की मौजूदगी बनी हुई है। स्कूलों में विभिन्न विषयों के अध्यापक नहीं है, इससे बच्चों की पढ़ाई प्रभावित होती है। वे आठवीं के बाद आगे पढ़ने लायक क्षमता का विकास नहीं कर पाते। स्कूल आने वाले लाखों बच्चों में गणित और भाषा के बुनियादी कौशलों का विकास नहीं हो पा रहा है। इस कारण से स्कूल छोड़ने वाली स्थितियां निर्मित होती हैं।

भोजन की गुणवत्ता पर ध्यान देने की जरूरत है ताकि करोड़ों बच्चों को कुपोषण से बचाया जा सके। बहुत से सरकारी स्कूलों में शौचालय की स्थिति दयनीय है, विशेषतः बालिकाओं एवं बच्चे सम्मान के साथ उनका इस्तेमाल नहीं कर सकते। गांवों एवं पिछड़े इलाकों की स्कूलों की बात छोड़िये, राजधानी दिल्ली में अव्वल शिक्षा का दावा करने वाली आप सरकार की स्कूलों में पीने का स्वच्छ पानी नहीं है, बैठने के लिये पर्याप्त साधन नहीं है, इस स्थिति में भी बदलाव की जरूरत है। बहुत से स्कूलों में शिक्षक शराब पीकर आते हैं। या फिर स्कूल में हाजिरी लगाकर स्कूल से चले जाते हैं। ऐसी स्थिति का असर भी बच्चों की पढ़ाई पर पड़ता है। शिक्षकों को बच्चों की प्रगति और पीछे रहने के लिए जिम्मेदार बनाने वाला सिस्टम नहीं बन पाया है, इस दिशा में भी गंभीर पहल की जरूरत है।

आए दिन देश की शिक्षा व्यवस्था में व्यापक बदलाव करने और समावेशी बनाने को लेकर दावे किए जाते हैं, घोषणाएं की जाती हैं। लेकिन वे शायद ही कभी वास्तव में जमीन पर उतरती दिखती हैं। एक गरीब परिवार का विद्यार्थी मेधावी होने के बावजूद कई बार अपने परिवार की आर्थिक स्थिति, जरूरत और पृष्ठभूमि की वजह से उसे मजबूरन स्कूल छोड़ना पड़ जाता है। जाहिर है, स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई बीच में छोड़ने का मसला शैक्षिक संस्थानों तक पहुंच, पठन-पाठन के स्वरूप से लेकर गरीबी, पारिवारिक, सामाजिक और अन्य कई कारकों से जुड़ा हुआ है और इसके समाधान के लिए सभी बिंदुओं को एक सूत्र में रखकर ही देखने की जरूरत होगी।

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