कल्याण सिंह से जुड़े अनसुने किस्से: बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद प्रमुख हिन्दू नेता के रूप में उभरे थे, जब वाजपेयी के खिलाफ हुए...
उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और बीजेपी के दिग्गज नेता रहे कल्याण सिंह (Kalyan Singh Dies) का 21 अगस्त को 89 साल की उम्र में निधन हो गया. बीजेपी को मजबूत करने में जितनी भूमिका अटल बिहारी वाजपेयी (Atal Bihari Vajpayee) और लालकृष्ण आडवाणी (Lal Krishna Advani) की थी, कल्याण सिंह (Kalyan Singh) की भी उससे कम नहीं थी. वाजपेयी बीजेपी का ब्राह्मण चेहरा हुआ करते थे तो कल्याण सिंह ओबीसी चेहरे के साथ-साथ हिंदू-हृदय सम्राट के तौर पर जाने जाते थे.
कल्याण सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी, दोनों ही नेताओं ने आरएसएस से निकलकर जनसंघ से होते हुए बीजेपी का गठन किया और पार्टी को सत्ता तक पहुंचाने में भूमिका अदा की. हालांकि, इसी के साथ कल्याण सिंह और वाजपेयी के बीच राजनीतिक खींचतान और मनमुटाव जैसी खबरें भी आती रहीं. अटल बिहारी वाजपेयी और कल्याण सिंह ने एक ही दौर में सियासत में कदम रखा और एक ही राजनीतिक विचाराधारा के साथ आगे बढ़े. वाजपेयी ने खुद को राष्ट्रीय राजनीति में बनाकर रखा जबकि कल्याण सिंह को यूपी की सियासत ने बांधे रखा. कभी बनिया और ब्राह्मण पार्टी कही जाने वाली बीजेपी को पिछड़ों के बीच मजबूत करने में कल्याण सिंह ने अहम भूमिका अदा की. एक समय में उन्हें वाजपेयी के विकल्प के तौर पर भी देखा जाने लगा था, लेकिन कल्याण सिंह धैर्य से काम नहीं ले सके.
'अटल बिहारी वाजपेयी मुझे हटा नहीं सकते थे'
एनडीए के संयोजक रहे जार्ज फर्नांडीज ने कल्याण सिंह पर एक बार टिप्पणी की थी कि सियासत में कामयाबी के लिए धैर्य की भी जरूरत है और अगर कल्याण सिंह ने धैर्य दिखाया होता तो वही अटल के बाद बीजेपी के कप्तान होते. वहीं, कल्याण सिंह कहा करते थे कि मेरे जीवन की सबसे बड़ी भूल थी, जब मैंने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने की बात को स्वीकार लिया था. अगर मैं इस्तीफा के लिए तैयार नहीं होता तो अटल बिहारी वाजपेयी मुझे हटा नहीं सकते थे. इसी दर्द में बाद में कल्याण सिंह ने बीजेपी को भी अलविदा कह दिया था.
कल्याण सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी के बीच सियासी रस्साकशी की बुनियाद 1997 के समय पड़ी. 1996 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी, लेकिन प्रदेश में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला था. इसके चलते यूपी में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया, लेकिन चार महीने के बाद 1997 में बसपा और बीजेपी के बीच सरकार बनाने के लिए 6-6 महीने के मुख्यमंत्री का फॉर्मूला तय हुआ.
जब कल्याण सिंह ने पार्टी नेताओं से कही थी दिल की बात
21 मार्च,1997 को फॉर्मूले के तहत पहले मायावती ने उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली थी तो छह महीने के बाद बीजेपी की ओर से 21 सिंतबर 1997 को कल्याण सिंह को मुख्यमंत्री पद की शपथ लेनी थी. मायावती का छह महीने का कार्यकाल जैसे-जैसे पूरा हो रहा था, वैसे-वैसे बसपा का सियासी मिजाज बदलता जा रहा था. ऐसा लगने लगा था कि मायावती मुख्यमंत्री का पद कल्याण सिंह के लिए छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं.
मायावती के मिजाज को देखते हुए कल्याण सिंह को यह लगने लगा था कि अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बनने के लिए बीएसपी के साथ राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन करने का मन बना रहे हैं, क्योंकि उस समय वाजपेयी तमाम दलों को साथ मिलाकर एनडीए का गठन करने में जुटे थे. ऐसे में वे यह मान रहे थे कि मायावती इसीलिए मुख्यमंत्री पद छोड़ने के लिए राजी नहीं हैं. कल्याण सिंह ने उस समय अपने कई करीबी नेताओं से खुद के लिए कहा था कि लगता है कि अपनी ही पार्टी की साजिशों का शिकार हो जाऊंगा.
हालांकि, मायावती ने काफी मशक्कत और सियासी उठापटक के बाद 21 सिंतबर को मुख्यमंत्री पद छोड़ दिया, लेकिन बीजेपी के साथ गठबंधन तोड़ लिया. ऐसे में कल्याण सिंह ने बसपा और कांग्रेस को तोड़कर और कुछ निर्दलीय विधायकों के दम पर सदन में बहुमत साबित कर दिया. कल्याण सिंह मुख्यमंत्री तो बन गए, लेकिन बसपा और कांग्रेस के बागी नेताओं को मंत्री बनाने के लिए जम्बो मंत्रिमंडल बनाना पड़ा. 90 से ज्यादा मंत्री बने जोकि अब तक का सबसे बड़ा मंत्रिमंडल माना जाता है.
इशारों-इशारों में जब सामने आई दिल की बात
वहीं, अटल बिहारी वाजपेयी 1998 में प्रधानमंत्री बने, लेकिन कल्याण सिंह के साथ पहले जैसे रिश्ते नहीं रहे. 13 महीने बाद अटल की सरकार एक वोट से गिर गई थी. कांशीराम ने वाजपेयी से सदन में समर्थन देने का वादा किया था, लेकिन कल्याण सिंह के प्रकरण के चलते बसपा सदन से वॉकआउट कर गई. इसके बाद जब साल 1999 में मध्यावधि लोकसभा चुनाव हो रहे थे तब कुछ ऐसे बयान सामने आए जिससे दोनों नेताओं के बीच की दूरी का अंदाजा लगाया गया.
साल 1999 के लोकसभा चुनाव के दौरान यूपी के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह थे और लखनऊ में प्रेस कॉफ्रेंस में उनसे एक सवाल हुआ था कि आपको पक्का भरोसा है कि अटल बिहारी वाजपेयी दोबारा प्रधानमंत्री बन जाएंगे? इस पर कल्याण सिंह ने कहा था कि मैं भी चाहता हूं कि वे प्रधानमंत्री बनें, लेकिन पीएम बनने के लिए पहले सांसद भी बनाने पड़ते हैं.
वोटिंग से एक दिन पहले कल्याण सिंह ने की बैठक और फिर...
वाजपेयी लखनऊ संसदीय सीट से चुनाव लड़ा करते थे. लखनऊ में मतदान से पहले कल्याण सिंह ने एक समीक्षा बैठक की थी, जिसमें उन्होंने कहा था कि वह चाहते हैं कि यूपी में निष्पक्ष मतदान हो. वोटिंग के दिन प्रशासन की ओर से लखनऊ में सख्ती देखने को मिली. खासकर बीजेपी के प्रभाव वाले क्षेत्रों में, इसे कल्याण सिंह के निष्पक्ष मतदान वाले दिशा-निर्देश से जोड़कर देखा गया. हालांकि, कुछ लोगों ने इसे अटल और कल्याण के टकराव के रूप में देखा.
अटल बिहारी वाजपेयी लखनऊ से चुनाव तो जीत गए, लेकिन पहले से करीब 70 हजार कम वोट मिले थे. 1998 में वाजपेयी को 4 लाख 31 हजार 738 वोट मिले थे जबकि 1999 में 3 लाख 62 हजार 709 वोट मिले. इतना ही नहीं 1998 में बीजेपी को यूपी से 58 सीट मिली थीं जबकि 1999 में घटकर 29 ही रह गई थीं. बीजेपी की सीटें घटने को लेकर पार्टी में कल्याण सिंह का सियासी खेल बताया गया और वाजपेयी को प्रधानमंत्री बनने की राह को रोकने की कोशिश बताई गई.
कल्याण सिंह को बीजेपी से हटाए जाने की मांग उठी
हालांकि, एनडीए के दम पर अटल बिहारी वाजपेयी 10 अक्टूबर 1999 को प्रधानमंत्री बनने में कामयाब रहे. इसी के बाद बीजेपी में कल्याण सिंह को हटाने के लिए मांग उठने लगी. यूपी में वाजपेयी के करीबी नेता खुलकर कल्याण सिंह के खिलाफ एकजुट हो गए. कल्याण सिंह और वाजपेयी के बीच कड़वाहट जगजाहिर हो गई थी. कल्याण सिंह को लग रहा था कि उन्हें पद से हटाने का मोर्चा जिन नेताओं ने खोल रखा है, उन्हें वाजपेयी शह दे रहे हैं.
कल्याण सिंह के खिलाफ बीजेपी नेताओं के एकजुट होने की वजह कुसुम राय भी थीं. लखनऊ से पार्षद रहते हुए कुसुम राय कल्याण सिंह की सरकार में काफी पावरफुल मानी जाती थीं और तमाम सियासी फैसले में दखल दिया करती थीं. इसके चलते पार्टी के तमाम नेता नाराज थे, लेकिन कल्याण सिंह ने किसी की भी परवाह नहीं की. हालात पार्टी में ऐसे हो गए कि कल्याण सिंह को मुख्यमंत्री से हटाने के लिए बीजेपी के तमाम बड़े नेता एकजुट हो गए. ऐसे में कल्याण सिंह के मुख्यमंत्री के बदले केंद्र में जाने का ऑफर भी दिया गया.
केंद्रीय नेतृत्व के दखल और दबाव के बाद कल्याण सिंह ने मुख्यमंत्री पद छोड़ने के लिए तैयार हो गए. 12 नवंबर 1999 को उन्होंने इस्तीफा दिया और उनकी जगह रामप्रकाश गुप्त को मुख्यमंत्री बनाया गया. कल्याण सिंह मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद अटल बिहारी वाजपेयी को लेकर बहुत दिनों तक सहज नहीं रह पाए और सार्वजनिक रूप से बयानबाजी शुरू कर दी.
अटल बिहारी वाजपेयी पर कल्याण सिंह ने साधा था निशाना
कल्याण सिंह ने अटल बिहारी वाजपेयी को साजिशकर्ता और ब्राह्मणवादी मानसिकता से ग्रस्त व्यक्ति तक बताया था. इतना ही नहीं, यह भी कहा कि, 'अटल बिहारी को एक पिछड़े वर्ग से आने वाला व्यक्ति मुख्यमंत्री के रूप में सहन नहीं हो रहा था. अटल जी ने अपनी कुर्सी बचाने के लिए राम मंदिर मुद्दे को तिलांजलि दे दी है. वह बीजेपी को खत्म करने को उतारू हैं.'
वाजपेयी के खिलाफ मोर्चा खोलने के चलते कल्याण सिंह को बीजेपी शीर्ष नेतृत्व ने पार्टी से निष्कासित कर कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया. इसके बाद भी कल्याण सिंह ने वाजपेयी के खिलाफ बयानबाजी बंद नहीं की. बीजेपी के तत्कालीन अध्यक्ष कुशाभाऊ ठाकरे ने कल्याण सिंह को छह साल के लिए बीजेपी से बाहर कर दिया. इसके बाद कल्याण सिंह ने अपने समर्थकों के साथ मिलकर राष्ट्रीय क्रांति पार्टी का गठन किया. साल 2002 के विधानसभा चुनाव चार सीटें आईं. इसके बाद मुलायम सिंह की सरकार में शामिल हो गए, लेकिन 2004 में वाजपेयी उन्हें दोबारा से बीजेपी में ले आए. 2007 में बीजेपी ने उन्हें सीएम का चेहरा बनाया, लेकिन अब न तो पहले की तरह उनका सियासी असर रहा है और न ही तेवर. ऐसे में बीजेपी को करारी मात खानी पड़ी. इसके बाद कल्याण सिंह का बीजेपी से मोहभंग हो गया और 2009 में पार्टी छोड़ दी.
बीजेपी छोड़ने के बाद कल्याण सिंह ने सपा के साथ हाथ मिला लिया. मुलायम के समर्थन से कल्याण सिंह तो जीत गए, लेकिन सपा को करारी झेलनी पड़ी. इसके बाद कल्याण सिंह ने दोबारा से अपनी पार्टी को मजबूत किया और 2012 के चुनाव लड़े, लेकिन उन्हें करारी मात खानी पड़ी. इसके बाद 2014 में बीजेपी में वापसी की और कसम खाई कि जिंदगी की आखिरी सांस तक अब बीजेपी का रहूंगा. मोदी सरकार के बनने के बाद उन्हें राज्यपाल बनाया गया था. उनके बेटे एटा से सांसद हैं और पोता योगी सरकार में मंत्री. अपनी आखिरी सांस उन्होंने बीजेपी के सदस्य के तौर पर ली.