सुप्रीम कोर्ट ने कहा - पुलिस हिरासत में हिंसा के कारण मौत की घटना सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं
संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत दिए गए अधिकार का सरासर उल्लंघन है।
सुप्रीम कोर्ट ने ओडिशा में 1988 में एक व्यक्ति को प्रताड़ित करने के आरोपी दो पुलिसकर्मियों के खिलाफ नरमी बरते जाने से इनकार करते हुए गुरुवार को कहा कि हिरासत में हिंसा के कारण किसी व्यक्ति की मौत की घटना 'घृणित' और सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं है। शीर्ष अदालत ने कहा कि आरोपियों की तरफ से किया गया अपराध केवल उस व्यक्ति के खिलाफ नहीं हुआ बल्कि यह मानवता के भी खिलाफ है और संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत दिए गए अधिकार का सरासर उल्लंघन है।
जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस अजय रस्तोगी की पीठ ने आईपीसी की धारा 324 (जानबूझकर चोट पहुंचाने) के तहत अपराध को माफ करने से मना करते हुए पीड़ित के परिवार के लिए मुआवजा राशि में बढ़ोतरी करने का निर्देश दिया। पीठ ने कहा, 'हिरासत में व्यक्ति से हिंसा के कारण हुई उसकी मौत का मामला घृणित और सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं है। किसी व्यक्ति को थाने में पीटना सबके लिए चिंता की बात है और इससे समूचे समाज में डर का भाव पैदा होता है।'
पीठ ने कहा कि लोग थाना इस उम्मीद के साथ जाते हैं कि पुलिस की तरफ से उनकी और संपत्ति की रक्षा की जाएगी, अन्याय और अत्याचार करने वालों को दंडित किया जाएगा। न्यायालय ने कहा, 'जब समाज के रक्षक, लोगों की रक्षा करने के बजाए बर्बरता और अमानवीय तरीका अपनाते हुए थाना आने वाले किसी व्यक्ति की पिटाई करते हैं तो यह लोगों के लिए चिंता की बात है।'
हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ और सजा में नरमी बरतने के लिए दो पूर्व पुलिस अधिकारियों ने उच्चतम न्यायालय में एक याचिका दाखिल की थी। ओडिशा में एक थाने में दोनों आरोपी पुलिस अधिकारियों ने एक व्यक्ति की निर्ममतापूर्वक पिटाई की थी, जिससे उसकी मौत हो गई। हालांकि, शीर्ष अदालत ने अब 75 साल के हो चुके दोनों आरोपियों की सजा कम कर दी और दोनों को पीड़ित के परिवार को 3.5 लाख रुपये का मुआवजा देने को कहा।