- ललित गर्ग -
भारतीय मसालों की गुणवत्ता की साख जब दुनिया में धुंधली हुई है, मिलावटी मसालों पर देश से दुनिया तक बहस छिड़ी हुई है, तब दिल्ली में मिलावट के एक बड़े मामले का पर्दापाश होना न केवल चिंताजनक है बल्कि दुनिया की तीसरी आर्थिक महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर भारत के लिये शर्मनाक है। भारत में मिलावट का मामला मसालों तक ही सीमित नहीं है। मिलावटखोरों ने दवाइयों, तेल, घी, दूध, मिठाइयों से लेकर अनाज तक किसी चीज को नहीं छोड़ा है। हर साल त्योहारों पर देशभर से मिलावटी मावा और मिलावटी मिठाइयों की खबरे आती हैं। प्रश्न है कि आखिर मिलावट का बाजार इतना धडल्ले से क्यों पनप रहा है, क्यों सिस्टम लाचार है, मिलावटखोरी का अंत क्यों नहीं हो पा रहा है? लोकसभा चुनाव के दौरान मिलावट की त्रासद एवं जानलेवा घटनाओं का उजागर होना, क्यों नहीं चुनावी मुद्दा बनता?
कह तो सभी यही रहे हैं--”बाकी सब झूठ है, सच केवल रोटी है।“ लेकिन इस बड़े सच रोटी यानी पेट भरने की खाद्य-सामग्री को मिलावट के कारण दूषित एवं जानलेवा कर दिया गया है। देश में खाद्य पदार्थों में मिलावट मुनाफाखोरी का सबसे आसान जरिया बन गई है। खाने-पीने की चीजें बिल्कुल भी सुरक्षित नहीं हैं। किसी भी वस्तु की शुद्धता के विषय में हमारे संदेह एवं शंकाएं बहुत गहरा गयी हैं। मिलावट का धंधा शहरों से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों तक भी फैला हुआ है और इसकी जड़ें काफी मजबूत हो चुकी हैं। जीवन कितना विषम और विषभरा बन गया है कि सभी कुछ मिलावटी है। सब नकली, धोखा, गोलमाल ऊपर से सरकार एवं संबंधित विभाग कुंभकरणी निद्रा में है। मिलावटी खाद्य पदार्थ धीमे जहर की तरह हैं। ये दिल और दिमाग से जुड़ी बीमारियों, अल्सर, कैंसर वगैरह की वजह बन सकते हैं। खाने वालों को आभास भी नहीं होता कि वे धीरे-धीरे किसी गंभीर बीमारी की ओर जा रहे हैं। वे किसी पर भरोसा कर कुछ खरीदते हैं और मिलावटखोर तमाम कानून बने होने एवं प्रशासन की सक्रियता के बावजूद इस भरोसे को तोड़ रहे हैं। उनकी वजह से दूसरे देशों का भी भरोसा भारतीय उत्पादों पर कम होने की स्थितियां बनती जा रही है। कुछ दिनों पहले ही हांगकांग और सिंगापुर ने लिमिट से ज्यादा पेस्टिसाइड का आरोप लगाकर दो भारतीय ब्रैंड के कुछ मसालों को बैन किया था। अगर ऐसा हुआ तो इनके निर्यात से करोड़ों डॉलर की आमदनी पर आंच आएगी।
मिलावट करने वालों को न तो कानून का भय है और न आम आदमी की जान की परवाह है। दुखद एवं विडम्बनापूर्ण तो ये स्थितियां हैं जिनमें खाद्य वस्तुओं में मिलावट धडल्ले से हो रही है और सरकारी एजेन्सियां इसके लाइसैंस भी आंख मूंदकर बांट रही है। जिन सरकारी विभागों पर खाद्य पदार्थों की क्वॉलिटी बनाए रखने की जिम्मेदारी है वे किस तरह से लापरवाही बरत रही है, इसका परिणाम आये दिन होने वाले फूड प्वाइजनिंग की घटनाओं से देखने को मिल रहे हैं। मिलावट के बहुरुपिया रावणों ने खाद्य बाजार जकड़ रखा है। मिलावट का कारोबार अगर फल-फूल रहा है, तो जाहिर है कि इसके खिलाफ जंग उस पैमाने पर नहीं हो रही है, जैसी होनी चाहिए। इस मामले में भारत अपने पड़ोसी देश बांग्लादेश से कुछ सबक ले सकता है, जिसने हल्दी में लेड की मिलावट पर काबू पा लिया। मिलावटखोर हल्दी की चमक बढ़ाने के लिए लेड का इस्तेमाल करते हैं और यह समस्या पूरे दक्षिण एशिया की है।
मिलावट सबसे बड़ा खतरा है। मारने वाला कितनों को मारेगा? एक आतंकवादी स्वचालित हथियार से या बम ब्लास्ट कर अधिक से अधिक सौ दो सौ को मार देता है। लेकिन खाद्य पदार्थों में मिलावट करने वाला हिंसक एवं दरिंदा तो न जाने कितनों को मृत्यु की नींद सुलाता है, कितनों को अपंग और अपाहिज बनाता है। इन हिंसक, क्रूर एवं मुलाफाखोरों पर लगाम न लगने की एक वजह यह भी है कि ऐसा करने वालों को लगता है, इससे होने वाले मुनाफे की तुलना में मिलने वाली सजा बहुत कम है। जाहिर है, सजा कड़ी करने के साथ ही यह भी पक्का करना होगा कि दोषी किसी तरह से बच न निकलें। यही नहीं, लोगों को पता होना चाहिए कि मिलावट की शिकायत कहां करनी है। हमारे प्रयासों में कमी न रहे, तभी यह काला धंधा रुक सकेगा।
कारोबार में बढ़ती प्रतिस्पर्धा के कारण मिलावट हर जगह देखने को मिलती है। कहीं दूध में पानी की मिलावट होती है, तो कहीं मसालों में रंगों की। दूध, चाय, चीनी, दाल, अनाज, हल्दी, फल, आटा, तेल, घी आदि ऐसी तमाम तरह की घरेलू उपयोग की वस्तुओं में मिलावट की जा रही है। यानी, पूरे पैसे खर्च करके भी हमें शुद्ध खाने का सामान नहीं मिल पाता है। मिलावट इतनी सफाई से होती है कि असली खाद्य पदार्थ और मिलावटी खाद्य पदार्थ में फर्क करना मुश्किल हो जाता है। जीवन मूल्यहीन और दिशाहीन हो रहा है। हमारी सोच जड़ हो रही है। मिलावट, अनैतिकता और अविश्वास के चक्रव्यूह में जीवन मानो कैद हो गया है। घी के नाम पर चर्बी, मक्खन की जगह मार्गरीन, आटे में सेलखड़ी का पाउडर, हल्दी में पीली मिट्टी, काली मिर्च में पपीते के बीज, कटी हुई सुपारी में कटे हुए छुहारे की गुठलियां मिलाकर बेची जा रही हैं। दूध में मिलावट का कोई अंत नहीं। नकली मावा बिकना तो आम बात है। राजस्थान और गुजरात में चल रहा नकली जीरे का कारोबार अब दिल्ली एवं देश के अन्य हिस्सो तक पहुंच गया है। दिल्ली में पहली बार पकड़ी गई नकली जीरे की खेप ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। भारत के लोगों को न शुद्ध हवा मिल रही है और न शुद्ध पानी और न ही शुद्ध खाने का निवाला, कैसी अराजक शासन व्यवस्था है?
मिलावट के कारण हम एक बीमार समाज का निर्माण कर रहे हैं। शरीर से रुग्ण, जीर्ण-शीर्ण मनुष्य क्या सोच सकता है और क्या कर सकता है? क्या मिलावटखोर परोक्ष रूप से जनजीवन की सामूहिक हत्या का षड्यंत्र नहीं कर रहे? हत्यारों की तरह उन्हें भी अपराधी मानकर दंड देना अनिवार्य होना चाहिए। मिलावट एक ऐसा खलनायक है, हत्यारी प्रवृत्ति है, जिसकी अनदेखी जानलेवा साबित हो रही है। चाहे प्रचलित खाद्य सामग्रियों की निम्न गुणवत्ता या उनके जहरीले होने का मततब इंसानों की मौत भले ही हो, पर कुछ व्यापारियों एवं सरकारी अधिकारियों के लिए शायद यह अपनी थैली भर लेने का एक मौका भर है। त्यौहारों पर मिलावटी मिठाइयां खाने से अपच, उलटी, दस्त, सिरदर्द, कमजोरी और बेचैनी की शिकायते सुनने में आती रही है। इससे किडनी पर बुरा असर पड़ता है। पेट और खाने की नली में कैंसर की आशंका भी रहती है।
खाद्य उत्पाद विनियामक भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) ने 2006 के खाद्य सुरक्षा और मानक कानून में कड़े प्रावधान की सिफारिश की थी। कानून को सिंगापुर के सेल्स आफ फूड एक्ट कानून की तर्ज पर बनाया गया जो मिलावट को गम्भीर अपराध मानता है। फूड इंस्पैक्टरों का दायित्व है कि वह बाजार में समय-समय पर सैम्पल एकत्रित कर जांच करवाएं लेकिन जब सबकी ‘मंथली इन्कम’ तय हो तो फिर जांच कौन करे? हालत यह है कि बाजारों में धूल-धक्कड़ के बीच घोर अस्वास्थ्यकर माहौल में खाद्य सामग्रियां बेची जा रही है। सीएजी ऑडिट के दौरान जो तथ्य उजागर हुए हैं, वे भ्रष्टाचार को तो सामने लाते ही है साथ-ही-साथ प्रशासनिक लापरवाही को भी प्रस्तुत करते हैं। देश में खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता बनाए रखने का काम करने वाली सरकारी एजेन्सी की दशा कितनी दयनीय है और वहां कितनी लापरवाही बरती जा रही है, सहज अनुमान लगाया जा सकता है। हमें सोचना चाहिए कि शुद्ध खाद्य पदार्थ हासिल करना हमारा मौलिक हक है और यह सरकार का फर्ज है कि वह इसे उपलब्ध कराने में बरती जा रही कोताही को सख्ती से ले।