अन्य राज्यों के विधानसभाओं के चुनाव से थोड़ा अलग है पश्चिम बंगाल का चुनाव देश
पश्चिम बंगाल का चुनाव देश के अन्य राज्यों के विधानसभाओं के चुनाव से थोड़ा अलग हटकर है। यहां बंगाल की संस्कृति और बंगाली अस्मिता भी प्रमुख चुनावी मुद्दा बनते हैं।
जनता से रिश्ता वेबडेस्क | पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव की घोषणा के बाद सभी राजनीतिक दल एड़ी चोटी का जोर लगाए हुए हैं। आगामी विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी के सामने भारतीय जनता पार्टी एक बड़ी चुनौती लेकर खड़ी है। कांग्रेस और वामपंथियों का गठबंधन अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए संघर्षरत दिखाई दे रहे हैं।
पश्चिम बंगाल का चुनाव देश के अन्य राज्यों के विधानसभाओं के चुनाव से थोड़ा अलग हटकर है। यहां बंगाल की संस्कृति और बंगाली अस्मिता भी प्रमुख चुनावी मुद्दा बनते हैं। भारतीय जनता पार्टी और तृणमूल कांग्रेस लगातार वहां की संस्कृति की बात कर रही है। तृणमूल कांग्रेस खुद को बंगाल की संस्कृति का ध्वजवाहक बताते हुए चुनाव मैदान में है।
ममता बनर्जी और उनकी पार्टी के कई नेता लेखकों, कलाकारों और फिल्म अभिनेताओं के संपर्क में हैं। उधर भारतीय जनता पार्टी के नेता भी सोनार बांगला के नारे के अंतर्गत बंगाल की खोई हुई अस्मिता को वापस लाने की बात करते हुए लगातार बुद्धिजीवियों के संपर्क में हैं। जब ममता बनर्जी बंगाल में वामपंथियों के खिलाफ पहली बार चुनाव लड़ रही थीं तब कोलकाता की सड़कों पर कई होर्डिंग लगे थे जिसमें महाश्वेता देवी समेत कई लेखकों कलाकारों के चित्र लगे थे और उसमें बांग्ला में लिखा था 'परिवर्तन'।
तब ये माना गया था कि इन होर्डिंग्स का मतदताओं पर असर पड़ा था। पश्चिम बंगाल में अब भी लेखकों, कलाकारों और संस्कृतिकर्मियों को गंभीरता से लिया जाता है और लोग उनका आदर भी करते हैं। इस आदर की ऐतिहासिक वजहें हैं। माना जाता है कि बंगाल के महापुरुषों ने सबसे पहले एक राष्ट्र का स्वप्न देखा था। भारतीयता के अराधक राजा राममोहन राय बंगाल की धरती पर पैदा हुए थे।
राजा राममोहन राय से लेकर रवीन्द्रनाथ ठाकुर तक जो परंपरा चली जिसे नवजागरण के नाम से जानते हैं उसमें केंद्र में भी भारत और भारतीयता है। इस नवजागरण का जब विश्लेषण किया जाता है तो इस बात को छोड़ दिया जाता है कि दरअसल ये नवजागरण, हिंदू नवजागरण था।
इस राष्ट्रवादी चेतना के उत्थान के सूत्र राजा राममोहन राय से लेकर गुरूदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के लेखन और उनके कार्यों में स्पष्ट रूप में दिखाई देते हैं। जब राममोहन राय बंगाल में सक्रिय हो रहे थे तो उनका उद्देश्य हिंदू धर्म के यथार्थ और वास्तविक स्वरूप से बंगाल की जनता का परिचय करवाना था।
हिंदू धर्म में व्याप्त कुरीतियों और कर्मकांडों के विरोध में उन्होंने बड़ा अभियान चलाया, उनको सफलता भी मिली। बंगाल में इस हिंदू नवजागरण का आरंभ करने वाले राममोहन राय को समाज सुधारक के तौर पर पेश कर उनकी इसी छवि को मजबूत किया गया। उनके कृतित्व का वो पक्ष सायास ओझल कर दिया जिसमें वो हिंदू धर्म को मजबूत करने के लिए लगातार प्रयास कर रहे थे।
उनको हिंदू धर्म से इतना लगाव था कि वो धर्म के नाम पर हो रहे विचलन को दूर करने के लिए लगातार कोशिश कर रहे थे। अपनी लेखनी के माध्यम से हिंदू धर्म के सामने उपस्थित खतरों को लेकर जनता को सावधान कर रहे थे। उन्होंने न केवल वेद और उपनिषदों को आधार बनाकर विपुल लेखन किया बल्कि 1820 में उनकी एक पुस्तक प्रकाशित हुई 'हिंदू धर्म की रक्षा'। अपनी इस पुस्तक में राममोहन राय ने हिंदू धर्म को लेकर अपनी सोच और इसको मजबूती प्रदान करने के लिए उठाए जाने वाले कदमों की चर्चा की थी।
राममोहन राय के अलावा अगर हम बंकिमचंद्र के लेखन को देखें तो उसमें भी हिंदू धर्म को लेकर एक चिंता दिखाई देती है। उनकी रचना वंदे मातरम और उपन्यास 'आनंदमठ' की तो खूब चर्चा होती है, इन रचनाओं में व्याप्त देशभक्ति की भावना को लेकर भी बहुत कुछ लिखा गया है। परंतु बंकिमचंद्र के उपन्यास 'सीताराम' की इतनी चर्चा नहीं होती है। बंकिम की इस रचना के बिना उनका समग्र मूल्यांकन संभव नहीं है।
इस उपन्यास में बंकिम ने मुस्लिम आक्रांताओं के बारे में विस्तार से लिखकर इस बात के संकेत दिए थे कि हिंदूओं को अपनी लड़ाई खुद लड़नी होगी। कहना ना होगा कि बाद के दिनों में बंकिम के इस उपन्यास पर इसलिए अधिक चर्चा नहीं की गई क्योंकि इसमें हिंदुओं पर आक्रांताओं के अत्याचार और फिर उसके प्रतिकार की कहानी है। अगर समग्रता में बंकिम के लेखन पर विचार हो तो उनको राष्ट्रीयता का ऋषि कहने में कोई संकोच नहीं होगा।
बंकिम की परंपरा में ही केशवचंद्र सेन जैसे हिंदू धर्म और दर्शन के विद्वान को भी रखना होगा। बंगाल की धरती पर कई ऐसे सपूत पैदा हुए या उस धरती को अपनी कर्मभूमि बनाया, जिन्होंने हिंदू धर्म और दर्शन की चिंता की जिनमें रमेशचंद्र दत्त, माइकल मधुसूदन दत्त, दीनबंधु मित्र, भूदेव मुखोपाध्याय से लेकर विवेकानंद और रवीन्द्रनाथ ठाकुर प्रमुख हैं। इस हिंदू नवजागरण की चर्चा तब तक पूर्ण नहीं होती जबतक कि हम 1867 में स्थापित 'हिंदू मेला' नामक संस्था की चर्चा नहीं करते।
इसकी स्थापना गणेन्द्रनाथ ठाकुर ने की थी। इस संस्था का उद्देश्य अंग्रेजों के सांस्कृतिक उपनिवेशवाद का प्रतिकार तो था ही, भारतीयता को मजबूती के साथ स्थापित करना था। 'हिंदू मेला' ने ही भारत में स्वदेशी आंदोलन के लिए जमीन भी तैयार की थी।
आज पश्चिम बंगाल विधानसभा के चुनाव के समय एक बार फिर से वही हिंदू अस्मिता विमर्श के केंद्र में है। यह अनायास नहीं है कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन के निदेशक अनिर्वाण गांगुली पिछले कई महीनों से बंगाल के कोने कोने में जाकर स्थानीय स्तर के लेखकों, कलाकारों, शिक्षकों आदि के साथ संवाद कर रहे हैं। ममता बनर्जी के लिए भी कई सांस्कृतिक संस्थाओं के साथ कार्यक्रम आयोजित किए गए हैं। कई जगहों पर उन्होंने भाषा और कला को लेकर भी अपनी बात रखी।
दरअसल स्वतंत्रता के कई वर्षों बाद जब बंगाल में वामपंथियों का शासन आरंभ हुआ तो इस हिंदू नवजागरण की परंपरा थोड़ी धूमिल पड़ने लगी। सायास नवजागरण के दौर के लेखकों की उन रचनाओं को भुलाने की कोशिशें तेज हो गईं जिनमें हिंदू अस्मिता की चर्चा थी या उन पुस्तकों को ओझल करने का खेल शुरू हुआ जिनमें हिंदू धर्म और उसपर होनेवाले प्रहारों का उल्लेख था या इस पृष्ठभूमि पर लिखा गया था। यह अनायास नहीं है कि जब ज्योति बसु बंगाल के मुख्यमंत्री थे तो 28 अप्रैल 1989 को पश्चिम बंगाल सरकार ने अपने पत्रांक एसवाईएल/89/1 के जरिए एक निर्देश जारी किया।
इस पत्र में सभी माध्यमिक विद्यालय के प्रधानाचार्यों को निर्देश दिया गया था कि 'मुस्लिम काल की कोई निंदा या आलोचना नहीं होनी चाहिए, मुस्लिम शासकों और आक्रमणकारियों द्वारा मंदिर तोड़े जाने का जिक्र कभी नहीं किया जाना चाहिए।' इसके साथ ही यह भी कहा गया था कि इतिहास की पुस्तकों से क्या क्या हटाया जाना है। स्पष्ट है कि वामपंथी शासन की मंशा क्या रही होगी।
वामपंथियों ने पश्चिम बंगाल में चौंतीस साल तक शासन किया और उसके बाद से ममता बनर्जी वहां की मुख्यमंत्री हैं। क्या अब ये प्रश्न नहीं पूछा जाना चाहिए कि हिंदू नवजागरण के नायकों की स्मृति को मिटाने या उनको विस्मृत करने या उसको नई पीढ़ी तक पहुंचाने का सार्थक कार्य क्यों नहीं किया गया?
क्यों वामपंथी शासनकाल में हुई गलतियों को पिछले दस साल में ठीक करने की कोशिशें नहीं की गईं। क्या बंगाल के सांस्कृतिक नायकों का स्मरण सिर्फ चुनावों के समय किया जाएगा या फिर उस धरती के जिन राष्ट्रवादी मनीषियों ने जो स्वप्न देखा था उसको पूरा करने का उपक्रम भी किया जाएगा।
लोकतंत्र में चुनाव एक ऐसा ही अवसर होता है जब जनता इन प्रश्नों को पूछ सकती है। बंगाल की जनता जरूर इन प्रश्नों के उत्तर मतदान के दिन तलाशेगी भी और उम्मीद की जानी चाहिए कि जिन्होंने गलतियां की उनको सबक भी सिखाएगी।