नफ़रत की इंतेहा और विश्वगुरु बनने का भरम ?

Update: 2022-06-22 04:18 GMT

निर्मल रानी

घिनौनी जातिवादी मानसिकता रखने वाले तथाकथित उच्च जाति के लोगों की अभद्रता व गुंडागर्दी का पिछले दिनों एक और मामला सामने आया। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में एक बार फिर ज़ोमैटो के दलित समाज से संबंध रखने वाले एक डिलीवरी ब्वॉय के हाथों से तथाकथित 'उच्च जाति' के एक ग्राहक ने खाना लेने से इंकार कर दिया। आरोप है कि ग्राहक को जैसे ही डिलीवरी ब्वॉय के दलित होने का पता चला। उसने खाना लेने से इंकार कर दिया। ख़बरों के अनुसार लखनऊ शहर के आशियाना इलाक़े का रहने वाला विनीत रावत नामक एक युवक ज़ोमैटो फ़ूड सप्लाई सर्विस में डिलीवरी बॉय के रूप में अपनी सेवाएं देकर अपना व अपने परिवार का पालन पोषण करता है। गत 18 जून (शनिवार) की रात विनीत रावत आशियाना क्षेत्र में ही अजय सिंह नाम के किसी ग्राहक के घर खाने की डिलीवरी लेकर पहुंचा। अजय सिंह ने डिलीवरी ब्वॉय से उसका नाम पूछा। जैसे ही उसने अपना नाम विनीत रावत बताया, ग्राहक अजय सिंह उसका नाम सुनते ही आग बबूला हो गया। पहले तो उसने खाने का पैकेट यह कहते हुए फेंक दिया कि 'हम दलित का छुआ हुआ खाना नहीं खाएंगे। इसके बाद उस तथाकथित 'उच्च जाति' के दुष्ट व्यक्ति ने उस मेहनतकश डिलीवरी बॉय के मुंह पर थूक दिया। जब विनीत रावत ने उसकी इन हरकतों का विरोध किया और ग्राहक से आर्डर कैंसिल करने का निवेदन किया तो आरोपी अजय और उसके परिवार के अनेक सदस्यों ने मिलकर उसकी काफ़ी देर तक पिटाई भी की।

किसी फ़ूड डिलीवरी ब्वॉय को उसकी जाति के आधार पर अपमानित करने की देश की यह कोई पहली घटना नहीं है। अब तक देश में ऐसी दर्जनों घटनाएँ हो चुकी हैं जिसमें कभी किसी जातिवादी ग्राहक ने किसी दलित युवक के हाथों से खाना लेने को मन किया तो कभी किसी साम्प्रदायिकतावादी ग्राहक ने किसी मुसलमान डिलीवरी ब्वॉय के हाथों से खाना लेने से इनकार किया व इन्हें अपमानित भी किया। ऐसे ही 'जातिवादी 'संस्कारों में पोषित स्कूलों के 'उच्च जाति ' के बच्चे कई बार उत्तर प्रदेश,झारखंड,बिहार व मध्य प्रदेश जैसे अनेक राज्यों में आंगनवाड़ी व अपने स्कूलों की दलित समाज से सम्बन्ध रखने वाली मेड के हाथों का बना भोजन खाने से इंकार कर चुके हैं। दलित समाज के किसी दूल्हे को तथाकथित 'उच्च जाति' के दबंगों द्वारा घोड़ी से उतारे जाने की घटनाएं भी हमारे 'विश्व गुरु ' बनने की दिशा में कथित तौर पर 'सरपट' भाग रहे भारतवर्ष में अक्सर होती रहती हैं। जातिवादी उत्पीड़न की घटनायें केवल किसी डिलीवरी ब्वॉय ,मेड या दलित दूल्हे की घुड़ड़चढ़ी तक ही सीमित नहीं हैं बल्कि दलित समाज से सम्बन्ध रखने वाले देश के दर्जनों उच्चाधिकारी यहाँ तक कि आई ए एस रैंक तक के कई अधिकारी इस विषय पर अपने व्यक्तिगत कटु अनुभव सार्वजनिक रूप से सांझा करते रहे हैं। आख़िर कोई वजह तो थी कि बाबा साहब भीम राव अंबेडकर जैसे महान क़ानूनविद व संविधान विशेषज्ञ को 1935 में यह कहना पड़ा था कि 'मैं हिंदू धर्म में पैदा ज़रूर हुआ, लेकिन हिंदू रहते हुए मरूंगा नहीं'? बाबा साहब को दलित समाज को संबोधित करते हुए यह क्यों कहना पड़ा था कि -'यदि आप एक सम्मानजनक जीवन चाहते हैं तो आपको अपनी मदद स्वयं करनी होगी और यही सबसे सही मदद होगी... अगर आप आत्मसम्मान चाहते हैं, तो धर्म बदलिए, अगर एक सहयोगी समाज चाहते हैं, तो धर्म बदलिए, अगर ताक़त और सत्ता चाहते हैं तो धर्म बदलिए, समानता, स्वराज और एक ऐसी दुनिया बनाना चाहते हैं जिसमें ख़ुशी ख़ुशी से जी सकें तो धर्म बदलिए '? आख़िर कुछ तो वजह रही होगी जिसके चलते 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर स्थित दीक्षाभूमि में अंबेडकर ने लाखों दलितों वंचितों के साथ हिन्दू धर्म त्यागकर बौद्ध धर्म स्वीकार किया? इसी दिन अंबेडकर ने सामूहिक धर्म परिवर्तन का एक कार्यक्रम भी किया और अपने अनुयायियों को शपथ दिलवाईं कि बौद्ध धर्म अपनाने के बाद किसी हिंदू देवी देवता और उनकी पूजा में विश्वास नहीं किया जाएगा। हिंदू धर्म के कर्मकांड नहीं होंगे और ब्राह्मणों से किसी क़िस्म की कोई पूजा अर्चना नहीं करवाई जाएगी।

परन्तु हमारे देश की सत्ता और सत्ता समर्थित नेता व मीडिया हिन्दू धर्म में व्याप्त ज़मीनी हक़ीक़त बन चुकी इन जातिवादी सच्चाइयों से निपटना व इन्हें दूर करना तो दूर उल्टे न केवल इनसे आँखें मूंदे हुए है बल्कि प्रायः इस व्यवस्था को समर्थन देते भी दिखाई देते हैं। इतना ही नहीं बल्कि इस अतिआवश्यक विमर्श से मुंह मोड़कर दूसरे ग़ैर ज़रूरी विषयों की ओर समाज का ध्यान भटकाकर इस जातिवादी व्यवस्था को यथावत रखने में दिलचस्पी रखते हैं। इसी जातिवादी व्यवस्था वाले धर्म में 'घर वापसी ' कराकर अपनी 'विजय पताका' लहराते रहते हैं। जबकि इसी दुर्भाग्य पूर्ण व्यवस्था से दुखी दलित समाज के लोग आये दिन कहीं ईसाई धर्म तो कहीं बौद्ध धर्म स्वीकार करते रहते हैं। परन्तु इन सांस्कारिक जातिवादी विडंबनाओं से लड़ने के बजाये इसी व्यवस्था के पोषक कुछ लोग लाठी डंडों से लैस होकर कभी धर्म परिवर्तन करने वालों पर तो कभी करवाने वालों पर हमलावर हो जाते हैं। हास्यास्पद तो यह है कि अब कुछ शातिर शातिर जातिवाद पोषकों द्वारा भारत में इस जातिवादी वैमनस्य का कारण भी मुग़ल शासकों को बताया जाने लगा है। जबकि हिन्दू धर्म में वर्ण व्यवस्था का इतिहास इस्लाम धर्म के उदय से शताब्दियों पुराना है। हिन्दू धर्म में चार वर्णों की व्यवस्था इस्लाम,मुसलमान या मुग़लों द्वारा नहीं की गयी थी।

दिन रात टी वी डिबेट में हिन्दू मुसलमान,मंदिर मस्जिद,भारत-पाकिस्तान, गाय-गोबर-गौमूत्र की बहस चलाने वाले और दूसरे धर्मों में कमियां निकालकर उनपर बहस चलाकर समाज को विभाजित करने में लगे भारतीय मीडिया को समाज सुधार के इस सबसे बड़े विषय पर मैराथन बहस चलानी चाहिये। भारत हिन्दू राष्ट्र बनने जा रहा है,हम विश्वगुरु बनने की दिशा में सरपट भाग रहे हैं जैसी बहसें तब तक तो बिल्कुल ही फ़ुज़ूल हैं जबतक समाज से वर्ण व्यवस्था और इससे उपजा जातिवाद का नासूर समाप्त नहीं होता। आश्चर्य है कि जिस देश में धर्म व जाति के नाम पर नफ़रत की इंतेहा हो और उसी देश के यही जातिवादी लोग विश्व विश्वगुरु बनने का भरम पाले फिरें ?

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