तनवीर जाफ़री
याद कीजिये बंगाल विधानसभा की तनावपूर्ण चुनावी बेला में 31 मार्च 2016 को दोपहर बिन्द्र सरानी के टैगोर स्ट्रीट चौराहे पर निर्माणाधीन फ़्लाई ओवर का एक विशालकाय स्टील गार्डर गिर गया था। व्यस्त इलाक़ा व दिन का समय होने के कारण इसके नीचे से गुज़र रहे बहुत से पैदल चलने वाले और अनेक वाहन इसमें दब गये थे। ख़बरों के अनुसार इसमें 25 लोग मारे गये थे जबकि 75 घायल घायल हुये थे। यह दुर्घटना चुनाव काल में होने के अतिरिक्त दुर्घटना से सम्बंधित कुछ 'विशेष बयानबाज़ियों' के लिये भी चर्चा का विषय बानी थी। हादसे के बाद इस फ़्लाई ओवर की निर्माता कंपनी के एक वरिष्ठ अधिकारी ने हादसे को 'ऐक्ट ऑफ़ गॉड' यानी भगवान की लीला कहकर अपना दामन बचाने की कोशिश की थी । परन्तु पुलिस ने दुर्घटना के बाद फ़्लाई ओवर के निर्माण कार्य में लगी कंपनी के ख़िलाफ़ एफ़ आईआर दर्ज की थी । राज्य सरकार ने इस हादसे में मारे गए लोगों के परिजनों को 5-5 लाख रुपये और गंभीर रूप से घायलों को 2-2 लाख रुपये मुआवज़ा देने का ऐलान किया था। परन्तु भारतीय जनता पार्टी इस मामले को लेकर उस समय बंगाल की ममता सरकार पर चौतरफ़ा हमलावर हो गयी थी। एक तत्कालीन केंद्रीय मंत्री ने तो पुल निर्माण में हुई गड़बड़ी की जांच CBI से करवाने की मांग तक कर डाली थी। इसी हादसे के फ़ौरन बाद बंगाल के अपने तूफ़ानी चुनावी प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि - 'यह दैवीय कृत्य है क्योंकि यह हादसा चुनाव के ऐन वक़्त पर हुआ है, ताकि लोगों को पता चल सके कि उन पर किस तरह की सरकार शासन कर रही है। ईश्वर ने यह संदेश भेजा है कि आज यह पुल गिरा है, कल वह (ममता बनर्जी) पूरे बंगाल को ख़त्म कर देंगी। '
प्रधानमंत्री का वही बयान आज ख़ुद उनके गले की फांस बन चुका है। मार्च 2016 के बाद अकेले गुजरात में ही जहां 28 वर्षों से बीजेपी की सरकार है और जिस गुजरात के विकास मॉडल का ढिंढोरा पीटपीट कर नरेंद्र मोदी ने 2014 में देश में गुजरात मॉडल लागू करने का दिव्यस्वप्न देश की जनता को दिखाया था,प्रधानमंत्री के अपने उसी गृह राज्य में अब तक कई ऐसे बड़े हादसे हो चुके हैं जो भ्रष्टाचार एवं मानवीय लापरवाही का जीता जगता सुबूत हैं। मिसाल के तौर पर अक्टूबर 2022 में गुजरात के मोरबी में मच्छु नदी पर बना एक सस्पेंशन ब्रिज टूट गया था। जिसमें उस समय पिकनिक मनाने गये पुल पर सवार सैकड़ों लोग नदी में गिर गए थे जिसमें 135 से अधिक लोगों की मौत हो गई थी। हालांकि इस पुल का स्वामित्व मोरबी नगर पालिका के पास है परन्तु नगर पालिका ने ओरेवा ग्रुप नामक गुजरात की ही एक कंपनी के साथ एक समझौते के तहत इसे 15 वर्षों के रखरखाव और संचालन के लिये उसे सौंप रखा था। बताया जा रहा था कि सत्ता के किसी क़रीबी की यह कंपनी एक घड़ी बनाने वाली कंम्पनी है जबकि उसे मोरबी सस्पेंशन ब्रिज जैसे ऐतिहासिक व तकनीकी दृष्टि से महत्वपूर्ण पुल की मरम्मत व रखरखाव की ज़िम्मेदारी दे दी गयी। उस हादसे के बाद प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रधान मंत्री राहत कोष से मोरबी त्रासदी में मारे गए लोगों के परिवार को 2-2 लाख रुपए और घायलों को 50,000 रुपए की सहायता राशि की दिये जाने की घोषणा की थी। गुजरात सरकार ने भी आर्थिक मदद का एलान किया था। ऐसे ही हादसों के वक़्त विपक्षी नेता पूछते हैं और याद दिलाते हैं -कि मोदी जी मोरबी की यह घटना Act of God है या Act of Fraud है?
इसी प्रकार अभी गत 14 जून को गुजरात के ही तापी ज़िले के व्यारा में माईपुर और डेगामा गांवों को जोड़ने वाले रास्ते पर मिंढोला नदी पर बना एक पुल ढह गया। पुल का निर्माण कार्य 2021 में शुरू हुआ था, जिस पर दो करोड़ रुपये खर्च हुए थे। ख़बरों के अनुसार पुल के निर्माण के दौरान निर्माण सामग्री व गुणवत्ता को लेकर स्थानीय लोगों की निर्माण कार्य में लगे ठेकेदार के साथ गर्म बहस भी हुई थी। यह पुल अभी अपने उद्घाटन की प्रतीक्षा में ही था कि ढह गया। जब भी गुजरात में इस तरह के हादसे होते हैं या भाजपा शासित राज्यों में होते हैं तब न तो कोई भाजपा नेता या मंत्री सी बी आई जांच की मांग करता है न ही 'न खाऊंगा न खाने दूंगा ' का नारा लगता दिखाई देता है। हाँ जब बंगाल या बिहार अथवा किसी अन्य ग़ैर भाजपा शासित राज्य में इस तरह के हादसे हों उस समय मीडिया की युगलबंदी के साथ भ्रष्टाचार विरोधी बिगुल फूँक दिया जाता है।
निश्चित रूप से भ्रष्टाचार और मानवीय लापरवाही किसी एक दल या राज्य की समस्या नहीं है। अभी पिछले दिनों बिहार के भागलपुर में भागलपुर और खगड़िया ज़िलों को जोड़ने के लिए सुल्तानगंज के अगुवानी पर निर्माणाधीन गंगा घाट पुल निर्माण के दौरान ही गंगा नदी में समा गया। इससे पहले यही पुल 2022 के अप्रैल में भी गिरा था। यानी 14 महीने में यह पुल दो बार निर्माण के दौरान ही टूट चुका। इस के निर्माण में 1,770 करोड़ रुपये से अधिक की लागत शामिल थी और इसे 2019 तक पूरा किया जाना था। और भी कई पुल बिहार में निर्माण के दौरान या संचालन के दौरान टूट चुके हैं। यानी भ्रष्टाचार किसी एक राज्य या दल में पायी जाने वाली त्रासदी नहीं बल्कि यह सत्ता के संरक्षण में पनप रही एक राष्ट्रव्यापी समस्या बन चुकी है। 'न खाऊंगा न खाने दूंगा' जैसे उद्घोष दरअसल लोकलुभावन एवं दिव्य स्वप्न रुपी विषय वस्तु बन चुके हैं। इन भाषाओं व वाक्यों का उपयोग केवल स्वयं को सदाचारी व अपने विरोधियों को भ्रष्टाचारी बताने मात्र लिये किया जाता है। जो भी सत्ता में रहता है वह स्वयं या अपने व्यवसायी नेटवर्क के माध्यम से देश की जनता के टैक्स के पैसों को दोनों हाथों से लूटने और लुटाने का काम करता है। चाहे वह परियोजना के नुक़्सान में ख़र्च हुए धन की शक्ल में हो या मुआवज़े के रूप में दी जाने वाली धनराशि। निश्चित रूप से इस नासूर रुपी समस्या से इससे पूरी ईमानदारी से निजात मिलना भी ज़रूरी है।परन्तु फ़िलहाल हक़ीक़त तो यही है कि न खायेंगे न खाने देंगे का उद्घोष पूर्णतः मिथ्या है जबकि भ्रष्टाचारं सर्वत्र व्यापं।