कोलकाता (आईएएनएस)| पश्चिम बंगाल में न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच खींचतान कोई नई बात नहीं है। अक्सर राजनीतिक दल, विशेष रूप से राज्य में सत्तारूढ़ दल अदालत के फैसले से नाखुश होते हैं और फैसले की आलोचना करने में जुट जाते हैं। कभी-कभी सत्ताधारी दल के नेता जजों पर एक सीमा में निजी हमला भी करते हैं।
लेकिन कभी भी यह हमला इस स्तर तक नहीं पहुंचा था कि अदालत में न्यायाधीशों की टिप्पणी को उनकी भविष्य की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं से जोड़कर देखा जाता हो।
यह विवाद कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति अभिजीत गंगोपाध्याय द्वारा हाल ही में शिक्षक भर्ती घोटाले के मामले की सुनवाई करते हुए भारत के चुनाव आयोग (ईसीआई) को तृणमूल कांग्रेस की मान्यता को रद्द करने की सिफारिश करने की टिप्पणी के बाद पैदा हुआ है।
न्यायमूर्ति गंगोपाध्याय की यह टिप्पणी राज्य के शिक्षा सचिव, मनीष जैन द्वारा अदालत में इस स्वीकारोक्ति के बाद आई कि अवैध रूप से नियुक्त किए गए शिक्षकों को समायोजित करने के लिए अतिरिक्त पदों के सृजन का निर्णय किया गया है।
इसने भानुमती का पिटारा खोल दिया। तृणमूल कांग्रेस के राज्य महासचिव और पार्टी प्रवक्ता कुणाल घोष ने न्यायमूर्ति गंगोपाध्याय पर तीखा हमला करते हुए दावा किया कि सेवानिवृत्ति के बाद के दिनों में वह अपनी सार्वजनिक छवि बनाने और अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए वह इस तरह का व्यवहार कर रहे हैं।
घोष ने मीडियाकर्मियों से कहा, अगर कोई मेरी पार्टी की मान्यता रद्द करने की धमकी देता है, तो मैं उसके शालीनता से पेश नहीं आ सकता। उन्हें मेरे खिलाफ जो भी कार्रवाई करनी है, करने दीजिए। तृणमूल कांग्रेस के दूसरे नेताओं ने भी न्यायमूर्ति गंगोपाध्याय को पक्षपाती बताते हुए उनके खिलाफ इसी तरह के बेतुके बयान दिए।
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक अरुंधति मुखर्जी कहती हैं कि कलकत्ता उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश का सत्ताधारी पार्टी के निशाने पर आना पश्चिम बंगाल में कोई नई बात नहीं है।
मुखर्जी ने कहा, इससे पहले एक उदाहरण है जब कलकत्ता उच्च न्यायालय के पूर्व और दिवंगत न्यायमूर्ति अमिताव लाला की गाड़ी 2004 में सत्तारूढ़ सीपीआई (एम) की रैली के कारण सड़क पर फंस गई। इसके बाद लाला ने अदालत में टिप्पणी की कि कार्य दिवसों पर कोलकाता की सड़कों पर ऐसी रैलियों पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए। उनकी इस टिप्पणी के बाद उन्हें सत्तारूढ़ पार्टी की नाराजगी का सामना करना पड़ा था।
उन्होंने कहा, उनकी टिप्पणी से नाराज माकपा नेता और वाम मोर्चा के अध्यक्ष बिमान बोस ने एक नारा लगाया और जस्टिस लाला को बंगाल से भाग जाने के लिए कहा। हालांकि मामले ने बड़ा आकार नहीं लिया। बाद में उन्होंने ऐसा नारा गढ़ने के लिए माफी मांगी।
अरुधंती ने कहा, हालांकि मैंने न तो ऐसा कोई उदाहरण देखा है जहां कलकत्ता उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश ने किसी राजनीतिक दल की मान्यता रद्द करने की तरह अतिवादी टिप्पणी की हो और न ही व्यक्तिगत स्तर पर संबंधित न्यायाधीश के खिलाफ इस तरह के तीखे जवाबी हमले।
कलकत्ता उच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता कौशिक गुप्ता ने कहा कि हालांकि विधायिका या कार्यपालिका को किसी न्यायाधीश किसी किसी विशेष निर्णय या टिप्पणी को नापसंद करने या नाराज होने या उसकी आलोचना करने का पूरा अधिकार है, लेकिन एक सीमा होनी चाहिए।
गुप्ता ने कहा, कलकत्ता उच्च न्यायालय के वकील के रूप में ढाई दशक से अधिक के अपने लंबे कार्यकाल में मैंने ऐसे कई उदाहरण देखे हैं, जब विकास को लेकर एक न्यायाधीश अपनी पीड़ा में कुछ टिप्पणियां करता है, लेकिन विधायिका या कार्यपालिका की इस प्रकार की तीखी टिप्पणी का उदाहरण बहुत कम है।
उन्होंने कहा, एक न्यायाधीश, अगर उसे उचित लगता है, तो वह निश्चित रूप से किसी राजनीतिक दल के खिलाफ किसी भी कार्रवाई के बारे में चुनाव आयोग को सिफारिश कर सकता है। वह सिफारिश मान्य होगी या नहीं, यह उच्च पीठों या उच्च न्यायालयों के निर्णयों पर निर्भर करेगा। साथ ही मेरा मानना है कि एक न्यायाधीश को ऐसी सक्रियता दिखाने के बजाय अपने निर्णयों के माध्यम से अधिक बोलना चाहिए।
वयोवृद्ध राजनीतिक पर्यवेक्षक और कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व रजिस्ट्रार राजगोपाल धर चक्रवर्ती को लगता है कि यह एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना है कि न्यायपालिका-कार्यपालिका के झगड़े अदालतों से परे राजनीतिक क्षेत्र तक चले गए हैं।
धर ने कहा, मेरी राय में यह मूल्यों में गिरावट का प्रतिबिंब है।