आर्थिक रूप से प्रभावित बच्चों के लिए नाइट शिफ्ट स्कूल विकल्प बना

Update: 2022-07-04 10:52 GMT

ग्यारह वर्षीय रूबी (बदला हुआ नाम) ने कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा था, क्योंकि उसके पिता एक गरीब किसान हैं जो ज़मीन के एक छोटे टुकड़े पर खेती करते हैं और उसकी मां हंसा देवी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के तहत एक मजदूर के रूप में काम करती हैं. दो छोटे भाई-बहनों की देखभाल के लिए प्रतिदिन माता-पिता रूबी को घर पर छोड़ देते हैं. सुबह-सुबह रूबी आधा किमी दूर एक हैंडपंप से पानी लाती है, बकरियों को खाना खिलाती है और अपनी माँ को खाना पकाने और घर के अन्य कामों में मदद करती है, लेकिन कभी-कभी परिवार की अतिरिक्त वित्तीय जरूरतों को पूरा करने के लिए वह भी मज़दूरी करने बाहर जाया करती है.

जनवरी 2021, से रूबी की जिंदगी में काफी बदलाव आया है. दरअसल राजस्थान के उदयपुर जिला स्थित कोटरा प्रखंड की सोलो पंचायत में उझाला नामक स्वयंसेवी संस्था ने रूबी समेत कई अन्य बाल मजदूरों और कोविड प्रभावित परिवारों के अन्य बच्चों को रात में शिक्षित करने की जिम्मेदारी ली है. अभियान को "लाइट इन डार्कनेस: नाइट कम्युनिटी लर्निंग सेंटर्स" का नाम दिया गया है. स्थानीय भाषा में इन रात्रि पाठशाला सेंटर को 'हिको केंद्र' कहा जाता है. रूबी की तरह इन केंद्रों में 311 बच्चे पढ़ रहे हैं. इनमें 158 लड़कियां और 153 लड़के हैं. वर्तमान में कोटरा प्रखंड के सोला व कोटरा ग्राम पंचायतों में संस्था के चार अन्य केन्द्र कार्यरत हैं. इनमें पढ़ने वाले बच्चे अत्यंत गरीब परिवारों के हैं. यह बच्चे दिहाड़ी मजदूरी के कारण स्कूल जाने से वंचित थे या गरीबी के कारण उनकी स्कूल तक पहुंच संभव नहीं थी. दूसरे शब्दों में, यह शैक्षिक केंद्र उन बच्चों की शैक्षणिक आवश्यकताओं को पूरा करते हैं, जो कोरोना अवधि के दौरान शिक्षा प्राप्त नहीं कर सके थे.

च्चों के अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्थाएं सेव द चिल्ड्रेन और वर्क्स नो चिल्ड्रन बिजनेस (डब्ल्यूएनसीबी) ने "राजस्थान के प्रमुख क्षेत्रों में बाल श्रम की स्थिति और श्रमिकों के कानूनी अधिकार" शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की है. रिपोर्ट के अनुसार राज्य में लाखों बच्चे कृषि कार्य में लगे हुए हैं. रिपोर्ट में कहा गया है कि उन्हें इस काम के लिए पर्याप्त मजदूरी भी नहीं मिलती है और वह अपने अधिकारों से भी वंचित हैं. इसी तरह कई बच्चों को पशुधन का काम दिया जाता है और इस प्रकार वह स्कूल जाने के अवसर से वंचित रह जाते हैं. यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के अनुसार कोरोना महामारी से पूर्व ही भारत में लगभग 6 मिलियन बच्चे विभिन्न कारणों से स्कूल से बाहर हो चुके थे. कोरोना के दो वर्षों में इस संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई है. यूनिसेफ के एक अध्ययन के अनुसार पूरे भारत में 15 लाख स्कूल बंद होने से प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों में लगभग 24.7 करोड़ बच्चे प्रभावित हुए हैं. रिपोर्ट के अनुसार कोरोना के कारण भारत में, पूरी दुनिया की अपेक्षा सबसे लंबे समय तक स्कूल बंद रहे हैं. हालांकि कक्षाएं ऑनलाइन आयोजित की गयी, लेकिन गरीब और वंचित परिवारों के लाखों बच्चे इससे वंचित थे क्योंकि उनके पास डिजिटल उपकरणों और इंटरनेट तक पहुंच नहीं थी. महामारी से पहले नियमित रूप से स्कूल जाने वाले अधिकांश झुग्गी-झोपड़ियों के बच्चे ऐसे परिवारों से आते थे जो ऑनलाइन अध्ययन के लिए आवश्यक फोन या अन्य उपकरणों का खर्च नहीं उठा सकते थे.

संगठन के सीईओ रवि किरण ने कोविड रिस्पांस वॉच को बताया कि कोटरा ब्लॉक की 95 फीसदी आबादी आदिवासी समुदाय की है. इस ब्लॉक में केवल 39 फीसदी कृषि योग्य भूमि ही सिंचित है और औसतन एक परिवार के पास केवल दो से चार बीघा कृषि योग्य भूमि है. उन्होंने बताया कि परिवार की आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण घर के छोटे छोटे बच्चों को भी मज़दूरी के कामों में लगा दिया जाता है. जबकि कानून के अनुसार केवल 14 वर्ष से अधिक आयु के बच्चे ही परिवार के साथ घर के कामों में मदद कर सकते हैं, लेकिन उनसे चार घंटे से अधिक काम नहीं लिया जा सकता है. लेकिन यहां बच्चों को स्कूल छुड़वा कर पूरी तरह से उन्हें काम पर लगा दिया जाता है. यही कारण है कि इस क्षेत्र में स्कूल से बाहर होने वाले बच्चों की संख्या अनुमान से बहुत अधिक है. वहीं मंजरी संस्था के मनीष सिंह का कहना है कि बच्चों की मज़दूरी से जुड़े कानून को सख्ती से अमल में लाने और उसकी निगरानी से जुड़ी न तो कोई व्यवस्था है और न ही ऐसी कोई व्यवस्था है जो घरों में काम करने वाले बच्चों के काम के घंटों की निगरानी कर सके. हद तो यह है कि इन कामों से उन बच्चों को कितना शारीरिक या मानसिक नुकसान हो रहा है, इसका भी पता लगाने का कोई मानक नहीं है.

वास्तव में नाइट कम्युनिटी लर्निंग सेंटर कोरोना से प्रभावित बच्चों के लिए शिक्षा का एक ऐसा केंद्र है, जो विभिन्न कारणों से मुख्यधारा की शिक्षा तक पहुंचने में असमर्थ हैं. इन केंद्रों में पढ़ाने के लिए गांव के पढ़े-लिखे युवाओं का चयन किया जाता है. जिन गांवों में युवा शिक्षक उपलब्ध नहीं हैं, वहां पास के गांव के एक व्यक्ति को पढ़ाने की जिम्मेदारी दी जाती है. इन नाइट शिफ्ट स्कूलों में बच्चों से कोई फीस नहीं ली जाती है. माता-पिता और बच्चे इन स्कूलों में भाग लेने के लिए अपना समय स्वयं चुनते हैं. ये स्कूल रात में तीन घंटे तक चलते हैं. इन केंद्रों में पहले आधे घंटे पूजा कराई जाती है. इसके बाद शारीरिक और मानसिक थकान को दूर करने के लिए योग किया जाता है. फिर अगले दो घंटे हिंदी और गणित के लिए समर्पित है और फिर शेष आधा घंटा बच्चों के बीच समूह चर्चा के लिए समर्पित होता है. इसमें कुछ गतिविधियां शामिल हैं जो बच्चों को याद दिलाती हैं कि उन्होंने दिन भर में क्या सीखा है? पसंद-नापसंद की आज की गतिविधियों के अलावा किसी की मदद करने या धन्यवाद देने के उदाहरणों को भी गतिविधि का हिस्सा बनाया जाता है.

संस्था के एक अन्य सदस्य असलम का कहना है कि कोरोना के दर्दनाक दौर के बाद हर कोई एक असामान्य प्रकार के मानसिक तनाव से ग्रस्त हो चुका है. हालांकि शैक्षणिक केंद्रों द्वारा आयोजित गतिविधियों में लगे बच्चे मानसिक रूप से स्वस्थ हैं. समूह चर्चा के माध्यम से भी बच्चों को अभिव्यक्ति की आदत विकसित करने में मदद की जाती है. सेंटर में पढ़ने वाली रूबी कहती हैं, ''पहले मुझे पढ़ना-लिखना नहीं आता था, लेकिन रात्रि पाठशाला में जाने के बाद मैं हिंदी के शब्द पढ़ सकती हूं और गणित भी हल कर सकती हूं. रवि के अनुसार पहले कोटरा के बारे में यह कहा जाता था कि अपराध और अन्य सुरक्षा मुद्दों के जोखिम के कारण रात में घूमना यह खतरे से खाली नहीं होता है, लेकिन पिछले एक साल में नाइट कम्युनिटी लर्निंग सेंटर्स के खुलने के बाद से यह गलत साबित हो रहा है. स्थानीय समुदाय और बच्चों के सहयोग से नाइट शिफ्ट स्कूल मॉडल सफल साबित हो रहा है. इस नवोन्मेषी संगठन ने कोरोना से प्रभावित गरीब परिवारों के बच्चों के लिए शिक्षा प्राप्त करना आसान बना दिया है. 

माधव शर्मा

जयपुर, राजस्थान

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