कविता तानाशाह के हंटर से लड़ रही है: गोपाल गोयल

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Update: 2023-08-14 14:17 GMT
रिपोर्ट कलीम ख़ान
लखनऊ। बांदा कविता की मां है। यह आदिकवि वाल्मीकि की धरती है। रीतिकाल में पद्माकर तथा भक्तिकाल में तुलसीदास यहीं से आते हैं। केदारनाथ अग्रवाल प्रगतिशील धारा के शीर्षस्थ कवि हैं। बांदा के समकालीन कवि उनकी परंपरा को आगे ले जाते हैं। कविता का काम मनुष्य को मनुष्य से जोड़ना है। जवाहरलाल जलज कविता में 'तानाशाह का हंटर' की पहचान करते हैं। आज कविता इस हंटर से लड़ रही है। उमाशंकर सिंह परमार और प्रद्युम्न कुमार सिंह जैसे कवि-साहित्यकार बांदा की उर्वरा के उदाहरण हैं।
यह बात 'मुक्ति चक्र' पत्रिका के संपादक वरिष्ठ साहित्यकार गोपाल गोयल ने कही। वे लिखावट की ओर से आयोजित 'कविता बांदा' के अंतर्गत पढ़ी गई कविताओं पर बोल रहे थे। इसका आयोजन ऑनलाइन हुआ। इस मौके पर बांदा के तीन कवियों ने अपनी कविताओं का पाठ किया।
'कविता बांदा' की शुरुआत युवा कवि प्रद्युम्न कुमार सिंह से हुई। उन्होंने 'केन' शीर्षक से कविता सुनाई। उल्लेखनीय है कि केदारनाथ अग्रवाल की कविता में 'केन' नदी जीवन श्रोत के रूप में बार-बार आती है। प्रद्युम्न की कविता का भाव है कि केन नदी नहीं परंपरा है। यह विरासत नष्ट हो रही है और हम मूकदर्शक बैठे हैं। प्रद्युम्न ने 'सावां', 'इन दिनों', 'चिड़िया' आदि कविताओं का पाठ किया। वे कहते हैं 'इन दिनों/सत्ता के दलालों द्वारा/फोड़े जा रहे हैं/पहाड़ों के माथे और बिगाड़ा जा रहा है/उनका स्वरूप/एवं साधे जा रहें हैं कुत्सित स्वार्थ/जिन्हे पुनः साध पाना/जीवन के साधने से भी हो गया है दुष्कर'। कविता के द्वारा पूंजी व बाजार का बढ़ता हुआ प्रभाव तथा पर्यावरण की चिंता सामने आती है।
दूसरे कवि उमाशंकर सिंह परमार थे। उन्होंने 'राजा का बोलना' कविता सुनाई जिसमें 'राजा' के माध्यम से सत्ता की बढ़ती बर्बरता और निरंकुशता सामने आती हैं। भाषा , साहित्य, कबीर व प्रेमचंद सभी निशाने पर हैं। आज पर्यावरण को विनिष्ट किया जा रहा है। वे कहते हैं कि पानी मर रहा है और आदमी देख रहा है। उमाशंकर सिंह परमार ने महाभारत को केंद्र कर 'इंद्रप्रस्थ' और 'भीष्म' कविताएं सुनाईं । उन्होंने इस मिथकीय कथा के माध्यम से आज के समय को संबोधित किया। यह ऐसा इंद्रप्रस्थ है जहां आम जनता का प्रवेश वर्जित है। वह कहते हैं कि इंद्रप्रस्थ धरती पर आबाद है, जिंदाबाद है।
बांदा के वरिष्ठ कवि जवाहरलाल जलज ने 'कविता की कीमत', 'तानाशाही का हंटर' आदि कविताएं सुनाईं। वे मानते हैं कि जब तानाशाही का हंटर चल रहा है, ऐसे में कविता को हथियार बनाना होगा। वे कहते हैं 'कविता ही है जो निश्चिंत हो, भय का भूत भगाती है/ चेतना की महाशक्ति का, सूरज नया उगाती है' और आगे 'पापों के सांपों के शीश कुचलने के हित, देती ताकत पूरी है /जीवन युद्ध जीतने खातिर, कविता बहुत जरूरी है।' वे नफरत की जगह प्रेम के भाव व्यक्त करते हैं, कुछ यूं 'सृजन का ही गीत हम गाते रहेंगे/भाव का दरियाव उमड़ाते रहेंगे/काट कर के नफरतों की नागफनियां/ प्रेम के हम पौध पनपाते रहेंगे'।
कविताओं पर टिप्पणी करते हुए युवा आलोचक शशि भूषण मिश्र का कहना था की कविताएं समय का आईना हैं । प्रद्युम्न कुमार सिंह अपनी कविता में विद्रूपताओं और पूंजी व बाजार के आम जीवन पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव को दर्ज करते हैं। प्रद्युमन के यहां 'पहाड़ नष्ट हो रहे हैं' तो उमाशंकर सिंह परमार के यहां 'पानी मर रहा है/आदमी देख रहा है' जैसे पर्यावरण की चिंता के भाव हैं। शशिभूषण मिश्र ने परमार के आलोचना कर्म, वरिष्ठ कवि मलय जी की रचनावली व महेंद्र भटनागर की रचनाओं के संपादन की चर्चा की और कहा कि भले ही इस क्षेत्र में उन्होंने प्रतिपक्ष रचा हो लेकिन उनका अंतर्मन कवि का है। जवाहरलाल जलज की कविताओं पर बोलते हुए शशि भूषण मिश्रा ने कहा कि जलज जी कविता में लय को प्राणवत्ता प्रदान करने वाले कवि हैं। वे केदार जी की भूमि कमसिन से आते हैं। कविता और गीत के बीच जो दूरी बनी है उसे रचनात्मकता यत्न से पाटते हैं। कार्यक्रम का संचालन भी शशिभूषण मिश्र ने किया। लिखावट की ओर से कवि व गद्यकार मिथिलेश श्रीवास्तव ने सभी का स्वागत किया और धन्यवाद ज्ञापित किया कौशल किशोर ने। इस अवसर पर जितेन्द्र कुमार (आरा, बिहार), भारती श्रीवास्तव व प्रशांत जैन (मुम्बई), गया प्रसाद सनेही आदि उपस्थित रहे।
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