रांची (आईएएनएस)| झारखंड में झामुमो की अगुवाई वाली सरकार ने इसी दिसंबर में अपने तीन साल पूरे कर लिए हैं। आदिवासियों-मूलवासियों के हक और जल, जंगल, जमीन से जुड़े मुद्दों पर संघर्ष के मूल से उपजी इस पार्टी को पहली बार कायदे से सत्ता का खाद-पानी हासिल हुआ और यह कहने-मानने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि पावर एक्सरसाइज की बदौलत वह अपने अब तक के इतिहास में आज सबसे मजबूत स्थिति में है।
पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन, जो राज्य के मुखिया भी हैं, तमाम मुश्किलों और चुनौतियों के बीच भी सियासी पिच पर आक्रामक बैटिंग कर रहे हैं। 2023 में भी वह इसी पोजिशन पर डटे रहने की कोशिश करेंगे क्योंकि 2024 में होने वाले विधानसभा और लोकसभा चुनावों की तैयारियों की ²ष्टि से यह साल बेहद अहम साबित होने वाला है।
पार्टी की जो मौजूदा पोजिशन है, उसके आधार पर भविष्य के लिए अच्छे स्कोर की संभावनाएं जरूर दिख रही हैं, लेकिन यह भी सच है कि नेतृत्व की एक भी बड़ी सियासी चूक उसे पीछे भी धकेल सकती है।
राज्य की प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा तगड़ी फिल्डिंग सजाने की तैयारियों में जुटी है और मौका पाते ही वह झामुमो की मौजूदा जमीन खिसका सकती है। केंद्रीय गृह मंत्री और भाजपा के शीर्ष रणनीतिकार अमित शाह आगामी 7 जनवरी को झारखंड दौरे पर आ रहे हैं। उनका यह दौरा पार्टी के सांगठनिक कार्यों को लेकर है। वह चाईबासा में पार्टी की ओर से आयोजित एक जनसभा को संबोधित करेंगे और लोकसभा कोर कमेटी व पार्टी नेताओं के साथ बैठक करेंगे।
हाल में पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव सुनील बंसल भी राज्य के दौरे पर थे। उन्होंने कई इलाकों में जाकर पार्टी के नेताओं के साथ विमर्श तो किया ही, जनता का मूड भांपने की भी कोशिश की। जाहिर है, भाजपा 2024 के चुनावों को लेकर जिस तरह की सांगठनिक तैयारियां कर रही हैं, उसमें झामुमो के लिए चुनौतियां बढ़ सकती हैं।
हालांकि झामुमो की केंद्रीय कमेटी के वरिष्ठ नेता और मुख्य प्रवक्ता सुप्रियो भट्टाचार्य कहते हैं कि अमित शाह चाहे राज्य के हर प्रमंडल और जिले का दौरा कर लें, वह झारखंड में हाशिए पर पहुंच चुकी पार्टी को नहीं उबार पाएंगे। वह बताते हैं कि झामुमो के लिए वर्ष 2023 संकल्प का वर्ष होगा। संकल्प इस बात का कि 2024 में झारखंड को भाजपा से मुक्त करा दिया जाएगा।
झारखंड मुक्ति मोर्चा वर्ष 2023 के फरवरी महीने में अपनी स्थापना के 50 साल पूरे कर रहा है। वर्ष 1973 में इसकी स्थापना जिन तीन प्रमुख नेताओं ने मिलकर की थी, उनमें अब एकमात्र शिबू सोरेन जीवित हैं। वह इसके संस्थापक महासचिव थे और पिछले कई दशकों से अध्यक्ष हैं, पर आज वास्तविक तौर पर पार्टी की कमान कार्यकारी अध्यक्ष उनके पुत्र हेमंत सोरेन के हाथ में है।
पार्टी ने 2019 में विधानसभा चुनाव हेमंत सोरेन की अगुवाई में ही लड़ा और अपना अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए राज्य की सत्ता हासिल की। जेएमएम ने राज्य की 81 में से 30 विधानसभा सीटों पर कब्जा किया और कांग्रेस एवं आरजेडी के साथ मिलकर कुल 47 सीटों के साथ गठबंधन की सरकार बनाई।
15 नवंबर 2000 को झारखंड अलग राज्य के निर्माण से लेकर अब तक राज्य में पांच बार सत्ता की कमान झामुमो यानी सोरेन परिवार के पास आई। वर्ष 2005, 2008 और 2009 में शिबू सोरेन राज्य के मुख्यमंत्री बने थे, जबकि 2013-14 में हेमंत सोरेन पहली बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे थे। जेएमएम की अगुवाई वाली ये चारों सरकारें अल्पजीवी रहीं। कोई सरकार महज कुछ रोज का मेहमान रही, कोई छह महीने तो कोई 14 महीने तक चली।
2019 में राज्य में हुए विधानसभा चुनाव के बाद जेएमएम की अगुवाई में पांचवीं बार सरकार बनी और हेमंत सोरेन दूसरी बार झारखंड के मुख्यमंत्री बने। जेएमएम की ये अब तक की सबसे लंबी चलने वाली सरकार है, लेकिन इसके साथ यह भी सच है कि इस सरकार के मुखिया हेमंत सोरेन को अपने राजनीतिक जीवन के सबसे मुश्किल दौर से गुजरना पड़ रहा है।
खनन घोटाले में ईडी की पूछताछ, खनन लीज पट्टा मामले में चुनाव आयोग से लेकर अदालतों तक में सुनवाई, विधानसभा सदस्यता पर संकट, राजभवन से टकराव, भ्रष्टाचार और मनी लांड्रिंग में करीबियों की गिरफ्तारी जैसे प्रकरणों के चलते वह वर्ष 2022 में कई बार गंभीर मुश्किलों में घिरते दिखे।
कई बार तो कुर्सी अब गई कि तब गई वाली हालत बनती दिखी। लेकिन, इन तमाम मुश्किलों के बीच उन्होंने सियासी मोर्चे पर शानदार स्कोर किया। वर्ष 2023 में भी हेमंत सोरेन और उनकी पार्टी के लिए कानूनी मोर्चे पर चुनौतियां बनी रहेंगी। खनन पट्टा, शिबू सोरेन की संपत्ति की जांच जैसे मामले अदालतों में हैं। मनी लांड्रिंग में ईडी की जांच में अभी कई पन्ने खुलने बाकी हैं।
हेमंत सोरेन ऐसी चुनौतियों का सामना करने को तैयार दिखते हैं। बीते 28 दिसंबर को पत्रकारों से बातचीत में उन्होंने कहा, "इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि आने वाले दिनों में ईडी मुझे भी गिरफ्तार कर ले। षड्यंत्रकारी ताकतों ने जब मेरे पिता शिबू सोरेन को गिरफ्तार कर जेल भेजा था तो मैं किस खेत की मूली हूं।"
"लेकिन मैं ऐसे षड्यंत्रों से नहीं घबराता। आदिवासी के इस बेटे को डराने की कोई भी साजिश सफल नहीं होगी। जब भाजपाई राजनीतिक तौर पर हमसे लड़ नहीं पा रहे तो हमारे पीछे ईडी-सीबीआई को लगा दिया गया है। लेकिन हमें अपने काम और जनता पर विश्वास है। हमने भाजपा को पहले ही राज्य में हाशिए पर पहुंचा दिया है।"
दरअसल, यह सच है कि हेमंत सोरेन की सरकार द्वारा बीते कुछ महीनों में लिए गए जनप्रिय फैसलों की बदौलत झामुमो ने राज्य में सियासी तौर पर कम्फर्ट बढ़त हासिल कर ली है।
झारखंड में 1932 के खतियान (भूमि सर्वे) पर आधारित डोमिसाइल पॉलिसी, ओबीसी-एसटी-एससी आरक्षण के प्रतिशत में वृद्धि, नेतरहाट फील्ड फायरिंग रेंज का विस्तार न देने की तीस वर्ष पुरानी मांग पर सहमति, राज्यकर्मियों के लिए ओल्ड पेंशन स्कीम,आंगनबाड़ी सेविकाओं-सहायिकाओं के वेतनमान में इजाफा, पुलिसकर्मियों को प्रतिवर्ष 13 माह का वेतन, पारा शिक्षकों की सेवा के स्थायीकरण, सहायक पुलिसकर्मियों के अनुबंध में विस्तार, मुख्यमंत्री असाध्य रोग उपचार योजना की राशि पांच लाख से बढ़ाकर दस लाख करने, पंचायत सचिव के पदों पर दलपतियों की नियुक्ति जैसे फैसलों से सरकार ने अपनी लोकप्रियता का सेंसेक्स बढ़ाया है।
पार्टी के सामने एक चुनौती अपनों को साधने की भी होगी। वरिष्ठ विधायक लोबिन हेंब्रम और हेमंत सोरेन की भाभी सीता सोरेन कई बार अपनी ही सरकार के विरोध में खड़े दिखते हैं। गठबंधन सरकार में साझीदार कांग्रेस की ओर से कुछ मुद्दों पर विरोध के स्वर उठते दिखते हैं, लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि झामुमो ने कांग्रेस को काफी हद तक साध रखा है। आज की तारीख में कांग्रेस झारखंड में झामुमो से अलग कोई सियासी रास्ता नहीं देख सकती। बहरहाल, आने वाला वक्त बेहतर बताएगा कि चुनौतियों के बीच झामुमो अपना सियासी प्रदर्शन किस हद बरकरार रख पाता है।