कोलकाता (आईएएनएस)| भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने पश्चिम बंगाल के तत्कालीन राज्यपाल जगदीप धनखड़ को उपराष्ट्रपति पद के लिए एनडीए के उम्मीदवार के रूप में घोषित करते हुए उन्हें 'पीपुल्स गवर्नर' कहा था। इस पर देश के विपक्षी दलों, विशेष रूप से पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस ने कहा था कि कि 'पीपुल्स गवर्नर' वाक्यांश भाजपा की राज्यपाल के पद की परिभाषा को दर्शाता है। मामले में तृणमूल कांग्रेस के सबसे मुखर होने के साथ विपक्षी दलों ने इस वाक्यांश को नड्डा द्वारा एक गुप्त स्वीकारोक्ति के रूप में वर्णित किया कि एक आदर्श राज्यपाल वह होता है जो न केवल एक राज्य में केंद्र सरकार के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करता है, बल्कि वह एक गुप्त राजनीतिक प्रतिनिधि भी होता है। उन्होंने यह भी दावा किया कि उपराष्ट्रपति के पद पर धनखड़ की पदोन्नति अन्य गैर-भाजपा शासित राज्यों के राज्यपालों को राज्य सरकार के साथ विवाद करने को प्रोत्साहित करेगी।
हालांकि तृणमूल कांग्रेस द्वारा धनखड़ की भूमिका की तीखी आलोचना उस समय अपना धार खो दी जब पार्टी नेतृत्व ने यूपीए उम्मीदवार मार्गरेट अल्वा का समर्थन करने की बजाय उपराष्ट्रपति के चुनाव से दूर रहने का फैसला किया। राजनीतिक बहस का सारा फोकस पश्चिम बंगाल सरकार व धनखड़ के विवाद से हटकर कांग्रेस और वाम मोर्चा के इस तर्क पर चला गया कि चुनाव से दूर रहना भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के बीच हुए गुप्त समझौते की पुष्टि करता है।
धनखड़ के कार्यकाल पर विशेष फोकस करने के साथ आईएएनएस पश्चिम बंगाल में राज्य सरकार व राज्यपाल के बीच हुए खींचतान पर एक नजर डालता है।
20 जुलाई, 2019 से 17 जुलाई, 2022 तक पश्चिम बंगाल के राज्यपाल के रूप में धनखड़ के कार्यकाल को राज्य सरकार विशेषकर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और विधानसभा अध्यक्ष बिमान बंदोपाध्याय के साथ उनके लगातार सार्वजनिक टकराव के रूप में चिह्न्ति किया गया। राज्य सरकार और सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस को विशेष रूप से धनखड़ के ट्विटर संदेश, राज्य सरकार पर आरोप लगाने वाले उनके बयान और विधानसभा परिसर में उनके प्रेस कान्फ्रेंस से नाराजगी थी।
धनखड़ अक्सर फाइलों को रोक कर रखने लगे और अतिरिक्त पूछताछ के साथ उन्हें विधानसभा सचिवालय में वापस भेजने लगे। विपक्ष ने उन पर राज्य में विपक्ष के नेता की तरह व्यवहार करने का आरोप लगाया, वहीं धनखड़ ने कहा कि राज्य सरकार उनका अपमान कर रही है। झगड़ा तब और बढ़ गया जब इस साल जनवरी में ममता बनर्जी ने घोषणा की कि उन्होंने अपने ट्विटर हैंडल पर राज्यपाल को ब्लॉक कर दिया, क्योंकि वह अपने ट्विटर संदेशों में उनका उल्लेख कर रहे थे और उनकी सरकार को गाली दे रहे थे।
धनखड़ के उपराष्ट्रपति बनने के बाद तृणमूल कांग्रेस के कई नेताओं ने कहा कि यह राज्य सरकार को परेशान करने का धनखड़ को इनाम है। हालांकि, माकपा और कांग्रेस ने सवाल किया कि अगर धनखड़ के लिए तृणमूल कांग्रेस की ऐसी ही नापसंदगी थी, तो पार्टी ने उप-राष्ट्रपति चुनाव में उनके खिलाफ मतदान से परहेज क्यों किया।
इससे पहले वाम मोर्चा शासन के दौरान भी राज्य सरकार-गवर्नरविवाद हुआ था, लेकिन यह कभी भी उस स्थिति में नहीं पहुंचा जैसा धनखड़ और तृणमूल कांग्रेस के मामले में हुआ था।
राज्य में 34 साल के वाम मोर्चा शासन को समाप्त करने के बाद वर्ष 2011 में सत्ता संभलाने के दो साल के भीतर ही तृणमूल सरकार व गवर्नर के बीच एक मामूली विवाद हुआ था। उस समय तत्कालीन माकपा विधायक और वाम मोर्चा शासन में राज्य के पूर्व भूमि सुधार मंत्री, अब्दुर रज्जाक मुल्ला पर तृणमूल कांग्रेस के कार्यकतार्ओं द्वारा कथित तौर पर हमला कर घायल कर दिया गया था।
पश्चिम बंगाल के तत्कालीन राज्यपाल और पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एमके नारायणन ने हमले को दुर्भाग्यपूर्ण बताया था और पुलिस को निष्पक्ष कार्रवाई करने को कहा। कांग्रेस के साथ तृणमूल कांग्रेस के गठबंधन के बावजूद तत्कालीन पंचायत मंत्री स्वर्गीय सुब्रत मुखर्जी ने नारायणन की टिप्पणी को एक राजनेता की तरह बताया। हालांकि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के हस्तक्षेप के कारण विवाद बढ़ा नहीं।
राज्य में 2006 से 2011 तक सातवीं और आखिरी वाम मोर्चा सरकार के दौरान तत्कालीन राज्यपाल और महात्मा गांधी के पोते, गोपाल कृष्ण गांधी के साथ एक और विवाद सुर्खियों में रहा था। 14 मार्च, 2007 को राज्य के पूर्वी मिदनापुर जिले के नंदीग्राम में पुलिस फायरिंग में 14 लोगों की मौत होने पर गांधी ने कानून और व्यवस्था के मुद्दे पर राज्य सरकार की आलोचना की। फिर नवंबर 2007 में जब नंदीग्राम में सत्ताधारी और विपक्ष के समर्थकों के बीच हिंसा का एक नया दौर शुरू हुआ तो गांधी ने एक और बयान जारी किया, जिसमें दिवाली से पहले की झड़पों का वर्णन किया गया था।
गांधी के बयानों ने सत्तारूढ़ माकपा नेताओं को परेशान किया और उनमें से कुछ ने उन्हें राज्यपाल की कुर्सी छोड़कर राजनीति में शामिल होने की सलाह दी। हालांकि पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री की चुप्पी के कारण मामले ने कोई बड़ा रूप नहीं लिया।
पश्चिम बंगाल में पहली बार राज्यपाल-सरकार के बीच विवाद देखने को मिला जब 1967 में राज्यपाल धर्म वीरा ने मुख्यमंत्री अजय मुखर्जी के नेतृत्व वाली संयुक्त मोर्चा सरकार को बर्खास्त कर दिया। इसके बाद सरकार की सहयोगी रही सीपीआई (एम) द्वारा धर्मवीरा के खिलाफ रैलियां की गईं।
राजनीतिक विश्लेषक राजगोपाल धर चक्रवर्ती के अनुसार राज्य में केंद्र सरकार के प्रतिनिधि के रूप में राज्यपाल और विपक्षी दल द्वारा शासित राज्य सरकार के बीच टकराव कोई नई बात नहीं है, लेकिन इतना स्पष्ट रूप कभी नहीं लिया, जैसा कि वर्तमान राज्य सरकार और जगदीप धनखड़ के संबंध में हुआ था। पहले के राज्यपाल और राज्य के कार्यकारी प्रमुख जानते थे कि रेखा कहां खींचनी है, लेकिन यहां ऐसा नहीं हुआ। उन्होंने कहा कि ऐसा इसलिए है क्योंकि राज्यपाल के माध्यम से राज्य को नियंत्रित करने के कांग्रेस के पहले के प्रयासों को केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा ने एक कदम और आगे बढ़ाया।