गुजरात में तीसरे दल ने वोट तो हासिल किया, लेकिन कभी सत्ता हासिल नहीं की

Update: 2022-11-20 07:01 GMT
गांधीनगर (आईएएनएस)| राज्य में यह धारणा बनाई जा रही है कि गुजरात के लोग केवल दो दलीय प्रणाली में विश्वास करते हैं। उन्होंने कभी किसी तीसरे दल को प्रोत्साहित नहीं किया। राज्य में न तो कभी कोई तीसरा दल सत्ता हथियाने में सफल हुआ न ही दोनों प्रमुख दलों को चुनौती देने में सफल रहा है। कुछ हद तक यह सच भी है, लेकिन पूरी तरह सच नहीं है। मई 1960 में राज्य की स्थापना के बाद से यहां तीन से अधिक प्रमुख दल हमेशा चुनाव मैदान में रहे हैं।
1962 में पहली बार 154 सीटों के लिए विधानसभा चुनाव हुए। कांग्रेस ने 50 फीसदी वोट शेयर के साथ 113 सीटें जीतीं। दूसरे स्थान पर 26 सीटों और 24 फीसदी वोट शेयर के साथ स्वतंत्र पार्टी थी। प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (पीएसपी) ने 7 सीटें जीतीं, नूतन महा गुजरात जनता परिषद (एनजेपी) ने सिर्फ एक सीट और 2.51 प्रतिशत वोट शेयर हासिल किया। जबकि 10 प्रतिशत वोट शेयर के साथ 7 निर्दलीय निर्वाचित हुए।
निर्वाचन आयोग के आंकड़ों के अनुसार दृश्य बहुत ज्यादा नहीं बदला है, लेकिन पार्टियां बदल गई हैं। उदाहरण के लिए, 1967 के चुनावों में भारतीय जनसंघ (बीजेएस) ने एनजेपी का स्थान लिया और 1.88 प्रतिशत मतों के साथ एक सीट जीती। 1975 के चुनाव से पहले स्वतंत्र पार्टी के अधिकांश सदस्य भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस या आईएनसी (ओ) में शामिल हो गए। इसलिए आईएनसी (ओ) ने स्वतंत्र पार्टी की जगह ले ली और 56 सीटों के साथ दूसरे स्थान पर रही और बीजेएस 18 सीटों के साथ तीसरे स्थान पर रही। कांग्रेस के दलबदलू चिमन पटेल की किसान मजदूर लोक पक्ष 11 सीटों के साथ चौथे स्थान पर रही और 16 निर्दलीय उम्मीदवार जीते।
बाद में राज्य में कांग्रेस, जनता पार्टी (बाद में जनता दल) और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) प्रमुख दल बने। इस समय तक चिमन पटेल की केएलपी का जनता पार्टी (सेक्युलर-एससी) में विलय हो गया था। 1980 के दशक के चुनावों में कांग्रेस (आई) को 51 प्रतिशत, जनता पार्टी (जेपी) को 22.77 प्रतिशत, भाजपा को 14 प्रतिशत वोट मिले थे। जनता पार्टी (एससी) और (एसआर) बुरी तरह से विफल रही और मुश्किल से क्रमश: 0.63 प्रतिशत और 0.13 प्रतिशत वोट हासिल कर सकी।
इसी ट्रैक रिकॉर्ड के आधार पर आज बीजेपी और कांग्रेस दावा कर रहे हैं कि राज्य में कोई तीसरा पक्ष कभी सफल नहीं हुआ या जनता ने उन्हें नकार दिया है। भाजपा प्रवक्ता राजू ध्रुव ने पूर्व मुख्यमंत्री चिमन पटेल की केएलपी या पूर्व मुख्यमंत्री शंकरसिंह वाघेला की अखिल भारतीय राष्ट्रीय जनता पार्टी (एआईआरजेपी) 1998 या पूर्व मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल की गुजरात परिवर्तन पार्टी (जीपीपी) 2012 का उदाहरण दिया। वाघेला की एआईआरजेपी को 1998 में 4 सीटें और 11 फीसदी वोट मिले, जबकि उनकी पार्टी ने 168 उम्मीदवार खड़े किए थे, जबकि केशुभाई की जीपीपी सिर्फ 2 सीटें और 3.63 फीसदी वोट ही हासिल कर पाई थी। इसने भी विधानसभा चुनाव में 167 उम्मीदवारों को नामांकित किया था।
राजनीतिक विश्लेषक दिलीप गोहिल तर्क देते हैं कि इस तर्क में कुछ दम है, लेकिन यह विश्वसनीय नहीं है। उनका कहना है कि चाहे चिमन पटेल हों, शंकरसिंह वाघेला हों या केशुभाई पटेल, वे विफल रहे, क्योंकि उन्होंने जिन क्षेत्रीय दलों का गठन किया था, वे व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं या उस पार्टी के साथ राजनीतिक मतभेदों से बाहर हुए थे, जिससे उन्होंने दलबदल किया था। चिमन पटेल कांग्रेस से व वाघेला और केशुभाई भाजपा से अलग हो गए थे। यही कारण है कि कद्दावर नेता होते हुए भी वे अपने या पार्टी के लिए मतदाताओं को लुभाने में असफल रहे।
इस परिदृश्य की तुलना में 1990 के विधानसभा चुनावों का उदाहरण लेना चाहिए। गोहिल ने आंकड़ों का हवाला दिया। जिसमें जनता दल और भाजपा के बीच 90 सीटों पर गठबंधन के बाद भी कई सीटों पर त्रिकोणीय मुकाबला था। चुनाव में जनता दल के 147 में से 70 उम्मीदवार जीते, जबकि 143 उम्मीदवारों में से भाजपा के 67 जीते। कांग्रेस ने 181 सीटों पर चुनाव लड़ा और केवल 33 पर जीत पाईं। 1975 के चुनावों के बाद यह दूसरी बार था, जब निर्दलीयों ने 10.44 प्रतिशत मतों के साथ अच्छा प्रदर्शन किया था और 11 सीटों पर जीत दर्ज की।
गोहिल कहते हैं कि राज्य में इस बार आप आक्रामक तरीके से चुनाव लड़ रही है। यह त्रिकोणीय मुकाबला है और आप को खारिज नहीं किया जा सकता।
राज्य में इस बार के चुनाव में यह नहीं कहा जा सकता कि कांग्रेस के लिए एआईएमआईएम एक बड़ा खतरा साबित होगी या उसके वोट बैंक में सेंध लगाएगी। एआईएमआईएम से थोड़े समय के लिए जुड़े वकील व राजनीतिज्ञ शमशाद पठान कहते हैं कम से कम 22 से 27 विधानसभा सीटें ऐसी हैं जहां मुस्लिम आबादी 25 से 60 फीसदी के बीच है, उसके खिलाफ एआईएमआईएम ने सिर्फ 13 उम्मीदवार उतारे हैं। पार्टी के पास राज्य में मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए न तो नेटवर्क है न ही कैडर।
अहमदाबाद में जमालपुर खड़िया निर्वाचन क्षेत्र का उदाहरण देते हुए पठान ने कहा कि एआईएमआईएम की राज्य इकाई के अध्यक्ष साबिर काबलीवाला इस सीट पर चुनाव लड़ने जा रहे हैं, कांग्रेस और आप के उम्मीदवार भी मुस्लिम हैं, जबकि भाजपा ने एक हिंदू उम्मीदवार को मैदान में उतारा है। अगर तीन मुस्लिम प्रत्याशियों के बीच मुस्लिम वोटों का बड़ा बंटवारा होता है तो इसका लाभ भाजपा को मिल सकता है। लेकिन ऐसा होता नहीं दिख रहा है। आप उम्मीदवार साबिर को अपने ही चीपा (मुस्लिम) समुदाय के विरोध का सामना करना पड़ रहा है, उनका कोई आधार नहीं है।
पठान का आकलन है कि आप व एआईएमआईएम के उम्मीदवार मिलकर अधिकतम 10 हजार वोट ही हासिल करते हैं। कांग्रेस प्रत्याशी इमरान ने 2017 में इस सीट पर 29,123 मतों से जीत हासिल की थी। इसलिए वह अपेक्षाकृत सुरक्षित हैं। कांग्रेस तभी हार सकती है जब आप और एआईएमआईएम सामूहिक रूप से 29 हजार से अधिक वोट हासिल करें।
राजनीतिक सूत्रों का कहना है कि राज्य में आप की दिलचस्पी 6 से 10 फीसदी वोट हासिल करने और कुछ सीटें जीतने में ज्यादा है। उसका अभियान यह सुनिश्चित करने के लिए अधिक केंद्रित है कि गुजरात चुनाव परिणाम इसे क्षेत्रीय पार्टी श्रेणी से राष्ट्रीय पार्टी तक पहुंचा दे।
Tags:    

Similar News

-->