तनवीर जाफ़री
राजशाही अथवा तानाशाही व्यवस्था में जनता के सवालों का जवाब न देने और किसी राजा या तानाशाह द्वारा जनता से इकतरफ़ा संवाद करने की बात तो किसी हद तक समझ आती है। हालाँकि पुराणों व इतिहास में कई ऐसे राजाओं का भी ज़िक्र है जो अपनी राजशाही अहंकार के बजाये जनभावनाओं का पूरा आदर व सम्मान करते चलाते थे। भगवान श्री राम के 'राम राज' का उदाहरण इनमें सबसे प्रमुख एवं उपयुक्त उदाहरण है। परन्तु लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता के प्रति जवाबदेही तो किसी भी शासन की पहली ज़िम्मेदारी है। तभी तो विश्व के सर्वशक्तिमान समझे जाने वाले देश अमेरिका सहित अधिकांश लोकतांत्रिक व्यवस्था रखने वाले देशों के प्रमुख अथवा उनके प्रतिनिधि समय समय पर संवाददाताओं के समक्ष पेश होकर मीडिया के उन सवालों का जवाब देते आ रहे हैं जो जनता उनसे पूछना चाहती है। इसी लिये लोकतांत्रिक सरकार को 'जनता द्वारा,जनता की और जनता के लिये' निर्वाचित सरकार के रूप में परिभाषित किया जाता है।
परन्तु जब लोकतंत्र की आड़ में शासक वर्ग जनता से इकतरफ़ा संवाद स्थापित करने लगे,मीडिया के सवालों के जवाब देने से कतराने लगे,नियमित प्रेस ब्रीफ़िंग से ही पीछा छुड़ाने लगे, मीडिया के सवालों का जवाब देने के बजाये अपनी ख़ामोशी में ही अपनी 'रणनीतिक जीत' समझने लगे तो इसे लोकतंत्र का ह्रास नहीं तो और क्या कहा जायेगा ? और तो और यदि मीडिया के कुछ कर्तव्यनिष्ठ पत्रकार अपने स्तर पर शासन की कमियां उजागर करें तो उन्हें जेल भेज दिया जाये और उन पर झूठे आपराधिक मुक़द्द्मे दायर कर दिए जायें?यह आख़िर लोकतंत्र की कैसी परिभाषा है ? परन्तु अफ़सोस की बात यह है कि इस समय विश्व का सबसे बड़ा कहा जाने वाला भारतीय लोकतंत्र ऐसे ही दुर्भाग्यपूर्ण हालात का सामना कर रहा है।
पिछले दिनों केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने शासन के नौ वर्ष पूरे कर लिये। इस बात के क़यास लगाये जा रहे थे कि शायद प्रधानमंत्री प्रेस वार्ता के ज़रिये देश के मीडिया को सम्बोधित करेंगे। परन्तु ऐसे सभी क़यास धरे के धरे रह गये। और प्रधानमंत्री ने मीडिया से रू बरु न होने की अपनी पिछले नौ वर्ष की 'रिवायत' को ही आगे बढ़ाते हुये इस अवसर पर भी कोई संवाददाता सम्मलेन नहीं किया। हाँ जनता से सत्ता के इकतरफ़ा संवाद को ही संभवतः 'लोकतंत्र का चौथा स्तंभ' समझने की भूल करने वाले सत्ता समर्थक अनेक मंत्रियों,भाजपा पदाधिकारियों व सत्ता के शुभचिंतक लेखकों ने ज़रूर 'मोदी सरकार के नौ साल ' होने पर लेखों व क़सीदों की झड़ी लगाकर रख दी। विज्ञापन पर करोड़ों ख़र्च किये गये। एक भोजपुरी अभिनेता व गायक भाजपा सांसद मनोज तिवारी ने तो 9 साल की मोदी सरकार की उपलब्धियों को समाहित करने वाला एक गीत(क़सीदा ) ही पेश कर डाला। ' जबकि विपक्षी कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ताओं ने '9 साल 9 सवाल ' शीर्षक से एक पत्रकार वार्ता कर देश की आम जनता से जुड़े नौ सवाल मोदी सरकार से पूछे और इन सवालों से संबंधित एक पुस्तिका भी जारी की।
प्रधानमंत्री मोदी की एक और बहुत मशहूर वायरल वीडियो सोशल मीडिया पर ख़ूब प्रसारित होती है जिसमें वे संसद भवन के बाहर मीडिया के सामने आकर खड़े होते हैं। फ़ोटो खिंचवाते हैं परन्तु मीडिया के किसी भी सवाल का जवाब दिए बिना मुस्कुराते हुये वापस मुड़ जाते हैं। करनथापर और विजय त्रिवेदी के सवालों से उनके मुंह फेरने,पानी मांगकर पीने और साक्षात्कार छोड़ कर चले जाने का दृश्य तो दुनिया देख ही चुकी है। संभवतः वास्तविक पत्रकारों से रूबरू होने का वही कड़ुवा अनुभव मोदी को मीडिया के समक्ष जाने से रोक देता है। और तभी वे इकतरफ़ा जन संवाद या 'मन की बात ' जैसे सम्बोधन को ही वे जन की बात मान बैठे हैं। या फिर कुछ फ़िल्म के सत्ता शुभचिंतक सेलेब्रिटीज़ को कभी कभी इंटरव्यू देकर लोगों को यह बताते हैं कि वे आम कैसे खाते हैं?चूसकर या काटकर? और उन में फ़क़ीरी कहाँ से आयी.... आदि,आदि ?
और अब अपने प्रधानमंत्री से प्रेरणा लेते हुये उनके वरिष्ठ मंत्रियों ने भी शायद मीडिया के समक्ष 'रणछोड़ ' बनने का हुनर सीख लिया है। मीडिया के सवालों से पीछा छुड़ाते,प्रश्नकर्ता पर ग़ुस्सा होने,ग़ुस्से में आपा खो बैठने यहां तक कि मीडिया कर्मी से मारपीट करने व उसका माइक छीनने तोड़ने जैसी तो अनेक घटनायें राजनेताओं व मीडियाकर्मियों के बीच होती ही रही हैं। परन्तु मीडिया कर्मी के सवाल से बचकर किसी महिला मंत्री का हांफते कांपते हुए दौड़ लगाकर भागना भी शायद मोदी सरकार के कार्यकाल में घटी एक विलक्षण घटना मानी जाएगी। ओलम्पिक पदक विजेता पहलवानों को लेकर गत दिनों जब एक महिला मीडिया कर्मी ने एक कार्यक्रम के बाद उनसे यह पूछा कि 'पहलवानों के आंदोलन पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है ? यह सवाल सुनकर केंद्रीय विदेश राज्य मंत्री मीनाक्षी लेखी वहां से दौड़ लगाकर भाग खड़ी हुईं।भागते भागते लेखी केवल इतना कहते सुनाई देती हैं कि - क़ानून के तहत प्रक्रिया चल रही है। महिला मीडिया कर्मी भी उनके साथ दौड़ते हुये उनसे बार बार अपना सवाल दोहरा रही थी। परन्तु उसके सवालों का विस्तृत जवाब दिये बिना वे तब तक दौड़ती रहीं जब तक अपनी कार तक नहीं पहुंचीं और कार तक पहुँचते ही 'चलो चलो..' कहते हुए कार में बैठ गयीं और वहाँ से चलती बनीं। मीनाक्षी लेखी भाजपा की एक क़ाबिल प्रवक्ताओं में गिनी जाती हैं। उनका सवालों से बचकर इसतरह भाग खड़े होना क्या इस बात का सुबूत नहीं कि ओलम्पिक पदक विजेता पहलवानों के शारीरिक शोषण को लेकर एक बाहुबली भाजपा सांसद के विरुद्ध चलाये जा रहे आंदोलन के बारे में माक़ूल जवाब देने के लिये उनके पास कुछ भी नहीं ?
पहलवानों के मामले को लेकर पूरा देश स्तब्ध है कि किस तरह सरकार देश का नाम रौशन करने वाली लड़कियों की शिकायत पर एक आरोपी को गिरफ़्तार नहीं कर रही। सरकार अदाणी जैसे आर्थिक घोटाला प्रकरण में भी ख़ामोश है, किसानों की आय दोगुनी करने के अपने वादे पर सरकार ख़ामोश है, बढ़ती हुई महंगाई का सरकार के पास कोई जवाब नहीं, केवल मंहगाई ही नहीं बल्कि बेरोज़गारी भी स्वतंत्र भारत के इतिहास में अपने चरम पर है। परन्तु सरकार और उसके कारिंदों के पास ऐसे हर सवाल का जवाब या तो ख़ामोशी है या फिर अब सवालों से बचकर भाग खड़े होने यानी मीडिया को देख,पलायन करने की नई परंपरा शुरू हो गयी है। सवालों पर चुप रहने या भाग जाने से सवाल तो ख़त्म नहीं हो जाते बल्कि किसी लोकतांत्रिक देश में जवाब न देने वाले सत्ता के ज़िम्मेदारों पर संदेह ज़रूर पैदा होता है। मशहूर शायर ख़ुमार बाराबंकवी ने ऐसे ही रणछोड़ों की ख़ामोशी के लिये कहा है कि -अरे ओ *जफ़ाओं पे चुप रहने वालो। ख़मोशी जफ़ाओं की *ताईद भी है।