समाज और घरवाले भी नहीं कर सकते लिव इन रिलेशनशिप का विरोध, HC की टिप्पणी

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Update: 2024-12-18 02:33 GMT

मुंबई। बॉम्बे हाई कोर्ट ने एक मामले की सुनवाई करते हुए 'लिव इन रिलेशनशिप' को कपल का अधिकार बताया है. कोर्ट ने कहा कि एक हिंदू लड़की और एक मुस्लिम लड़का 'लिव इन रिलेशनशिप' में रहना चाहते हैं, तो उन्हें रोका नहीं जाना चाहिए. अदालत ने कहा, "चूंकि यह पर्सनल रिलेशन में व्यक्तिगत पसंद करके सम्मान के साथ जीने के उनके अधिकार का एक अभिन्न अंग है. इसलिए सिर्फ सामाजिक अस्वीकृति की वजह से जोड़े को इस अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है, जो संविधान के तहत दो व्यक्तियों को मिला है."जस्टिस भारती डांगरे और जस्टिस मंजूषा देशपांडे की बेंच ने यह बात लड़की को शेल्टर होम से रिहा करने का निर्देश देते हुए कही, जहां उसे पुलिस ने रखा था.

हाई कोर्ट की बेंच ने निर्देश दिया, "हमारे सामने दो वयस्क हैं, जिन्होंने होश-ओ-हवास के साथ सहमति से एक-दूसरे को 'लिव इन रिलेशनशिप' में रहने के लिए जीवन साथी के तौर पर चुना है. कोई भी कानून उन्हें अपनी पसंद की जिंदगी जीने से नहीं रोकता है, इसलिए हम लड़की को तुरंत सरकारी स्त्री भिक्षावृत्ति केंद्र की हिरासत से रिहा करने का निर्देश देना उचित समझते हैं."

बेंच ने कहा कि वयस्क होने पर उसने अपनी पसंद का चुनाव किया है और उसने यह साफ कर दिया है कि वह अपनी शर्तों पर अपनी जिंदगी जीना चाहते हैं. बेंच ने कहा, "वह लड़की के माता-पिता की चिंता को समझ सकते हैं, जो उसके भविष्य को सुरक्षित करने में रुचि रखते हैं, लेकिन लड़की वयस्क है, उसने अपनी पसंद चुनने की आजादी का प्रयोग किया है, इसलिए हमारी राय में हमें उसकी पसंद चुनने की आजादी को प्रतिबंधित करने की अनुमति नहीं है. कानून के तहत वे यह फैसला लेने के हकदार हैं." हाई कोर्ट की बेंच ने सोनी गेरी बनाम गेरी डगलस मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि अदालत को मां की किसी भी तरह की भावना या पिता के अहंकार से प्रेरित होकर सुपर गार्जियन की भूमिका नहीं निभानी चाहिए.

हालांकि, बेंच ने लड़के द्वारा याचिका में मांग की गई पुलिस सुरक्षा देने से इनकार कर दिया. बेंच ने लड़की से करीब एक घंटे तक बात की और उसके बाद कहा, "जब उसने हमारे सामने यह जाहिर किया कि वह याचिकाकर्ता के साथ लिव-इन रिलेशनशिप में रहने के लिए तैयार है, तो उसके विचार स्पष्ट हैं, क्योंकि वह वयस्क है और याचिकाकर्ता भी वयस्क है. वह जिंदगी के इस लेवल पर वैवाहिक बंधन में बंधने की अपनी इच्छा व्यक्त नहीं करती है." बेंच ने कहा, "एक 'वयस्क' के तौर पर यह उसका फैसला है कि वह अपने माता-पिता के साथ नहीं रहना चाहती और न ही वह आश्रय गृह में रहना चाहती है, बल्कि वह एक फ्री पर्सन के तौर पर अपनी जिंदगी जीना चाहती है, जो दूसरों द्वारा शारीरिक रूप से प्रतिबंधित या नियंत्रित नहीं होती. वह अपनी पसंद और फैसला लेने में सक्षम है. उसके मुताबिक, वह अपने लिए जो सही है, वो फैसला करने की आजादी की हकदार है और जिसका निर्धारण उसके जन्मदाता माता-पिता या समाज द्वारा नहीं किया जाएगा."


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