मौत की सजा माफ, आरोपी को बालिग होने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने दी रिहाई का आदेश

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Update: 2025-01-09 02:24 GMT

उत्तराखंड। सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को अहम फैसला सुनाते हुए एक नागालिग आरोपी को 23 साल बाद बरी कर दिया है। इससे पहले उत्तराखंड की एक कोर्ट ने एक हत्या के मामले में इस शख्स को मौत की सजा सुनाई थी। कोर्ट ने कहा है कि लोवर कोर्ट, हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने उसके साथ सरासर अन्याय किया है। कोर्ट ने बताया कि अपराध के समय उसके नाबालिग होने के स्पष्ट सबूतों को नजरअंदाज करते हुए उसकी सजा बरकरार रखी गया। जस्टिस एमएम सुंदरेश की अध्यक्षता वाली पीठ ने फैसला सुनते हुए कहा, “इस मामले में कोर्ट की गलती की सजा पीड़ित को भुगतनी पड़ी। हमें बताया गया कि जेल में उसका व्यवहार अच्छा है और उसके खिलाफ कोई नेगेटिव रिपोर्ट नहीं है। उसने समाज से जुड़ने का मौका खो दिया। उसने बिना किसी गलती के जो समय खोया है वह कभी वापस नहीं आ सकता।

हालांकि कोर्ट ने 1994 में तीन व्यक्तियों की हत्या के मामले में उसे दोषी माना। सुप्रीम कोर्ट ने जेल से उनकी रिहाई का निर्देश देते हुए कहा कि संवैधानिक कोर्ट का काम सच्चाई को बाहर लाना और जुवेनाइल जस्टिस एक्ट जैसे सामाजिक कल्याण कानूनों को सही तरीके से लागू करना है। पीठ में शामिल जस्टिस अरविंद कुमार ने कहा, "हमारे जैसे देश में, जहां समाज निरक्षरता और गरीबी सहित जैसी चीजें है, कोर्ट की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है। कानून से प्रताड़ित बच्चों को इस एक्ट का लाभ पाने के लिए मौके दिए जाने चाहिए।

गौरतलब है कि दोषी ने उत्तराखंड हाईकोर्ट के अगस्त 2019 के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। इससे पहले राष्ट्रपति ने अनुच्छेद 72 के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए मौत की सजा को इस शर्त के साथ आजीवन कारावास में बदल दिया गया था कि वह 2040 में 60 साल का होने तक जेल से बाहर नहीं होगा। उत्तराखंड हाईकोर्ट ने इस मामले में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया था। वहीं सुप्रीम कोर्ट में दोषी की अपील पर वरिष्ठ अधिवक्ता एस मुरलीधर ने बताया कि हर स्तर पर दोषी के साथ अन्याय हुआ। उन्होंने बताया कि वह ट्रायल कोर्ट, हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट को बताता रहा कि अपराध करते समय वह नाबालिग था। ट्रायल कोर्ट ने उसे 2001 में दोषी ठहराया और बैंक चेक बुक और बैंक में उसके खाते के आधार पर उसके किशोर होने के दावे को खारिज कर दिया। वहीं 2002 में हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने भी उसकी याचिका खारिज कर दी थी।


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