बिलकिस बानो केस: सांसद महुआ मोइत्रा पहुंची सुप्रीम कोर्ट, जानें पूरा मामला

Update: 2022-08-23 11:24 GMT

न्यूज़ क्रेडिट: आजतक

नई दिल्ली: बिलकिस बानो गैंगरेप केस में सभी 11 दोषियों को रिहाई देने के मामले में अब टीएमसी भी कूद गई है. पार्टी सांसद महुआ मोइत्रा ने दोषियों की रिहाई के आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है. उनकी जनहित याचिका तीन कार्यकर्ताओं की याचिकाओं के साथ मंगलवार को सीजेआई की अध्यक्षता वाली पीठ के सामने पेश की गई. इसके बाद मामले में सुनवाई की मांग पर सीजेआई ने कहा- हम देखेंगे. उम्मीद जताई जा रही है कि सीजेआई जल्द ही इस मामले में सुनवाई कर सकते हैं.

इससे पहले वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल और अधिवक्ता अपर्णा भेट भी सुप्रीम कोर्ट से इस मामले में जल्द सुनवाई का आग्रह कर चुके हैं. CJI की अध्यक्षता वाली बेंच के समक्ष अधिलक्ता कपिल सिब्बल ने कहा कि हमने रिहाई को चुनौती दी है. यह रिहाई का मामला है. 14 लोग मार दिए गए, एक गर्भवती महिला के साथ बलात्कार किया गया. वहीं अधिवक्ता भट्ट ने कोर्ट से मामले की सुनवाई कल यानी बुधवार को करने का आग्रह किया. जिस पर बेंच ने याचिका को स्वीकार कर लिया है.
महुआ ने याचिका में गुजरात सरकार की छूट पर रिहाई देने की शक्ति पर सवाल उठाए गए हैं. इसमें कहा गया है कि चूंकि मामले की जांच सीबीआई ने की थी, इसलिए राज्य केंद्र की सहमति के बिना ऐसी रिहाई नहीं दे सकता.
याचिका में दावा किया गया है कि दोषियों की रिहाई सीआरपीसी की धारा 432-435 के तहत नहीं की गई है. मालूम हो कि धारा 432 और धारा 433ए में सजा में छूट का प्रावधान है और धारा 433 सजा को निलंबित करने या हटाने के लिए सरकारी को शक्ति दी गई है.
धारा 433 में कहा गया है कि अगर किसी व्यक्ति को किसी अपराध के लिए सजा दी गई है, तो सरकार बिना शर्त किसी भी समय पूरी सजा या उसकी सजा को कम कर सकती है. हालांकि सरकार द्वारा छूट देने से पहले सजा सुनाने वाले जज से पूरे कारणों के साथ पूछा जाता है कि मांग स्वीकार की जानी चाहिए या नहीं.
धारा 433ए में कुछ मामलों में छूट या कम्यूटेशन की शक्तियों पर प्रतिबंध का प्रावधान है. इस धारा के अनुसार अगर किसी व्यक्ति को आजीवन कारावास की सजा दी गई है या मौत की सजा सुनवाई गई है या मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया गया है तो ऐसे को कम से कम चौदह साल के कारावास की सजा के बाद ही रिहा किया जाएगा.
27 फरवरी 2002 को गुजरात के गोधरा स्टेशन पर साबरमती एक्सप्रेस के कोच को जला दिया गया था. इस ट्रेन से कारसेवक अयोध्या से लौट रहे थे. इससे कोच में बैठे 59 कारसेवकों की मौत हो गई थी. इसके बाद गुजरात में दंगे भड़क गए थे. दंगों की आग से बचने के लिए बिलकिस बानो अपनी बच्ची और परिवार के साथ गांव छोड़कर चली गई थीं.
बिलकिस बानो और उनका परिवार जहां छिपा था, वहां 3 मार्च 2002 को 20-30 लोगों की भीड़ ने तलवार और लाठियों से हमला कर दिया. भीड़ ने बिलकिस बानो के साथ बलात्कार किया. उस समय बिलकिस 5 महीने की गर्भवती थीं. इतना ही नहीं, उनके परिवार के 7 सदस्यों की हत्या भी कर दी थी. बाकी 6 सदस्य वहां से भाग गए थे.
मामले में 21 जनवरी, 2008 को मुंबई की एक विशेष सीबीआई अदालत ने 11 आरोपियों को दोषी पाया था और आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी. बाद में बॉम्बे हाईकोर्ट ने उनकी सजा को बरकरार रखा. इन दोषियों ने 18 साल से ज्यादा सजा काट ली थी, जिसके बाद राधेश्याम शाही ने धारा 432 और 433 के तहत सजा को माफ करने के लिए गुजरात हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था.
HC ने ये कहते हुए याचिका खारिज कर दी कि उनकी माफी के बारे में फैसला करने वाली 'उपयुक्त सरकार' महाराष्ट्र है, न कि गुजरात. राधेश्याम शाही ने तब सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सरकार को 9 जुलाई 1992 की माफी नीति के अनुसार समय से पहले रिहाई के आवेदन पर विचार करने का निर्देश दिया था.
कांग्रेस विधायकों इमरान खेडावाला, ग्यासुद्दीन शेख और मुहम्मद पीरजादा राष्ट्रपति को पत्र लिखकर बिलकिस बानो के गुनहगार की जेल मुक्ती के राज्य सरकार के फैसले को निरस्त करने की मांग कर चुके हैं.
राष्ट्रपति को लिखे पत्र में उन्होंने कहा, "गुजरात में 2002 के सांप्रदायिक दंगों के दौरान बिलकिस बानो के सामूहिक बलात्कार और उनके परिवार के 7 सदस्यों की हत्या के मामले में 11 अपराधियों को रिहा करने का गुजरात सरकार का फैसला चौंकाने वाला है. इसलिए हम गुजरात के तीन विधायक आपसे अपील करते हैं कि इस मामले में तुरंत हस्तक्षेप करें और केंद्रीय गृह मंत्रालय और गुजरात सरकार को अपराधियों को माफ करने के इस शर्मनाक फैसले को वापस लेने का निर्देश दें. 
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