IIT कानपुर के शोध से बडी सफलता, कोरोना की दवा बनाने की उम्मीद

Big breakthrough from IIT Kanpur research, hope to make corona medicine

Update: 2021-07-22 17:56 GMT

कोरोना के खिलाफ जंग के बीच भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आइआइटी) कानपुर के एक शोध की सफलता ने महामारी पर जीत पाने की दिशा में कदम बढ़ाए हैं। यहां के विशेषज्ञ शरीर में मौजूद 'जी प्रोटीन कपल्ड रिसेप्टर्स' ब्रैडीकिनिन और एंजियोटेंसिन की सिग्नलिंग (कोशिकाओं के अंदर एक प्रोटीन से दूसरे प्रोटीन को संदेश देना या रासायनिक परिवर्तन करना) कराने में सफल हुए हैं। इसके आधार पर गंभीर कोरोना संक्रमितों के लिए न्यूनतम दुष्प्रभाव वाली सटीक दवा बनाई जा सकती है, जो इन रिसेप्टर्स को स्वीकार होगी और बीमारी पर कारगर होगी।

मानव शरीर में मौजूद रिसेप्टर ब्रैडीकिनिन और एंजियोटेंसिन की सिग्नलिंग से मिले संकेत
आइआइटी के बायोलाजिकल साइंस एंड बायो इंजीनियरिंग विभाग के प्रो. अरुण शुक्ला के निर्देशन में डा. मिठू बैद्य ने यह शोध किया है। इसमेंं ब्रैडीकिनिन और एंजियोटेंसिन का पेप्टाइड (हार्मोन) से मिलान कराया गया। इससे कोशिकाओं में मौजूद प्रोटीन ने दूसरे प्रोटीन को संदेश दिया। शोध के परिणाम के आधार पर डाक्टर संक्रमितों की गंभीरता का पहले ही पता लगाकर समय पर इलाज कर सकेंगे। प्रो. शुक्ला के मुताबिक कुछ दवा कंपनियों से बात चल रही है। इस तकनीक का इस्तेमाल कर जल्द परीक्षण शुरू कर सकती हैं। दवा जल्द आएगी तो लोगों का जीवन सुरक्षित होगा।
रिसेप्टर का कोरोना में प्रभाव
शरीर में कोशिकाएं रिसेप्टर के माध्यम से बदलाव को महसूस करती हैं। रिसेप्टर के बड़े समूह को जीपीसीआर कहते हैं। इसकी सिग्नलिंग से न्यूनतम साइड-इफेक्ट वाली दवाएं बनाने में मदद मिलती है। कोरोना वायरस एसीईटू रिसेप्टर के माध्यम से शरीर में प्रवेश करता है, जो नाक, गला, फेफड़े, दिल और किडनी की सतह पर प्रोटीन को तोड़ने का काम करता है।
फेफड़ों में द्रव्य से होती परेशानी
डा. बैद्य के अनुसार, कोरोना मरीजों में ब्रैडीकिनिन स्टार्म की समस्या रहती है, जिससे फेफड़ों में द्रव्य जमा हो जाता है। निमोनिया के धब्बे बन जाते हैं। सांस फूलने लगती है। यह स्थिति घातक हो जाती है। बता दें, डा. बैद्य को भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (आइएनएसए) युवा वैज्ञानिक और डीबीटी इंडिया एलायंस अर्ली करियर अवार्ड-2021 मिल चुका है।
वेस्टर्न ब्लोटिंग तकनीक का इस्तेमाल
शोध में वेस्टर्न ब्लोटिंग तकनीक का प्रयोग किया गया है। डा. मिठू बैद्य ने बताया कि वेस्टर्न ब्लोटिंग तकनीक प्रोटीन को अलग करने और पहचानने में इस्तेमाल होती है। कोशिकाओं से प्रोटीन निकलने के बाद खास तरह के द्रव्य में चलाया जाता है। बड़े आकार के प्रोटीन ऊपर और छोटे नीचे हो जाते हैं। अब इन्हेंं मेंबरेन (झिल्ली) में ट्रांसफर कर दिया जाता है। मेंबरेन में एंटीबाडी डाल दी जाती है। एंटीबाडी डालते ही यह ग्लो (चमकने) होने लगता है। जो ज्यादा चमकता है, उसकी सिग्नलिंग उतनी ज्यादा होती है और उसी आधार पर दवा ज्यादा कारगर होने का प्रमाण मिलता है।
कोरोना वायरस से ऐसे प्रभावित होते अंग
कोरोना वायरस का हमला होते ही प्रोटीन में सिग्नलिंग जरूरत से अधिक तेज हो जाती है। कोशिकाएं मरने लगती हैं। फेफड़े की कोशिकाएं प्रभावित होते ही आक्सीजन लेवल नीचे गिरने लगता है। यह स्थिति फेफड़े के साथ दिल, गुर्दे, लिवर, दिमाग आदि को नुकसान पहुंचा सकती है।

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