Written by जनसत्ता: पश्चिम बंगाल की राजनीति और हिंसा जैसे एक-दूसरे का पर्याय बनते जा रहे हैं। जिस दिन वहां पंचायत चुनावों की तारीख घोषित हुई, उसी दिन से हिंसा शुरू हो गई और अब तक वहां पैंतालीस लोगों के मारे जाने की खबर है। नामांकन से लेकर मतदान और मतगणना के दिन तक हिंसक झड़पें होती रहीं।
जैसा कि पश्चिम बंगाल चुनावों में देखा जाता रहा है, मतदान और नतीजे आने के बाद तक हिंसा की घटनाएं होती रहती हैं, पंचायत चुनाव में भी इसका सिलसिला अभी बने रहने की आशंका है। मतगणना के वक्त विभिन्न जगहों पर विभिन्न राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं के बीच हिंसक झड़पें हुई और छह लोग मारे गए। पंचायत चुनाव में वहां व्यापक हिंसा की आशंका पहले ही जताई जा चुकी थी, जिसके मद्देनजर बड़े पैमाने पर राज्य सुरक्षा बल और बलों की तैनाती की गई थी।
फिर भी हिंसक घटनाएं नहीं रुकीं, तो इसमें किसे दोष देना चाहिए। अब राजनीतिक दल एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने में जुट गए हैं। कांग्रेस और भाजपा राज्य सरकार को इसके लिए दोषी बता रही हैं, तो सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस का आरोप है कि भाजपा के उपद्रवी कार्यकर्ताओं ने हिंसा का माहौल तैयार किया और तृणमूल कार्यकर्ताओं को निशाना बनाया।
इस हिंसा में बेशक सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ता अधिक मारे गए हैं, मगर इस आधार पर राज्य सरकार को कानून-व्यवस्था संबंधी अपनी जिम्मेदारियों से मुक्ति नहीं मिल जाती। इसमें दूसरे दलों के कार्यकर्ताओं की भी हत्याएं हुई हैं। यह कोई पहला चुनाव नहीं है, जिसमें इतने बड़े पैमाने पर वहां हिंसक झड़पें हुर्इं। पिछले विधानसभा और लोकसभा चुनावों में भी बड़े पैमाने पर हिंसा हुई।
यह समझ से परे है कि आखिर पश्चिम बंगाल में राजनीतिक दलों और उनके कार्यकर्ताओं का लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर भरोसा इतना कमजोर कैसे होता गया है कि वे कानून-व्यवस्था को धता बताते हुए अपने ढंग से मतदान कराने पर उतारू हो जाते हैं। वहां कोई भी राजनीतिक दल ऐसा नहीं दिखाई देता, जो अपने कार्यकर्ताओं को राजनीतिक हिंसा से दूर रहने का अनुशासन सिखाता हो।
बल्कि अब तो लगता है कि वहां के मुख्य प्रतिद्वंद्वी दल सिद्धांतों के बजाय बाहुबल के जरिए मतदाताओं को अपने पाले में खींचने में ज्यादा यकीन करते हैं। इसके चलते वहां साजिशें भी रची जाती हैं और राजनीतिक विद्वेष को सतत बनाए रखने का प्रयास होता है। यही कारण है कि वहां राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं में लगातार एक प्रकार का तनाव नजर आता है।
राजनीतिक दल किस प्रकार अपने कार्यकर्ताओं की हिंसक गतिविधियों को उचित ठहराने और उन्हें प्रोत्साहित करने का प्रयास करते हैं, इसका उदाहरण खुद कुछ साल पहले मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने दिया था। उनके कुछ कार्यकर्ताओं को पुलिस ने पकड़ा, तो वे खुद उन्हें छुड़ाने के लिए थाने पहुंच गई थीं। इसी तरह दूसरे राजनीतिक दल भी पुलिस को अपने प्रभाव में लेकर अपने कार्यकर्ताओं की हिंसक गतिविधियों पर पर्दा डालने का प्रयास करते देखे जाते हैं।
मगर ममता बनर्जी अगर सचमुच पश्चिम बंगाल में सुशासन के प्रति गंभीर होतीं, तो इस तरह वहां हिंसक घटनाएं न होने पातीं। चुनावों के समय, खासकर पंचायत चुनावों के समय हुई हिंसक घटनाओं से पैदा हुई दुश्मनी लंबे समय तक बनी रहती है। इस तरह बदले की भावना से नई हिंसक घटनाओं की संभावना भी पलती रहती है। ऐसे चुनाव को भला कैसे कोई लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत हुआ चुनाव कह सकता है!