कुरावली के ग्राम गणेशपुर में खुदाई के दौरान मिले प्राचीन शस्त्र, जानें क्या कहते हैं इतिहासकार
मैनपुरी के कुरावली क्षेत्र में प्राचीन काल की ताम्र निधियां मिलने के बाद इतिहास के वे पन्ने सामने आने लगे हैं जो समय के साथ खो गए थे। कुरावली का उपलब्ध इतिहास भी यहां की प्राचीनता का बखान करने के लिए काफी है। 18वीं सदी तक कुरावली का सुजरई राठौर-ठाकुर राज्य का मुख्यालय रहा। ऐसे में कुरावली की कहानी और भी पुरानी हो सकती है।
सुजरई में किले के खंडहर आज भी राठौर-ठाकुर राज्य की गवाही देते हैं। यहां राजा लक्ष्मण सिंह का राज था, तब कुरावली के बजाए सुजरई ही मुख्य केंद्र हुआ करता था। कुरावली को तब कुरौली नाम से जाना जाता था। सुजरई किले से लेकर मयनपुरी (वर्तमान में मैनपुरी) के राजा महाराजा तेजसिंह जूदेव के किले तक आने के लिए सुरंग थी। इसका उपयोग रियासत के कार्यों और विशेष सूचनाओं के आदान प्रदान के लिए होता था। धीरे-धीरे सुजरई का किला टीले में बदल गया और इतिहास जमींदोज हो गया।
कुरावली क्षेत्र के गांव गणेशपुर में ताम्र निधियां मिलने से एक बार फिर इतिहास के वे पुराने पन्ने सामने आए हैं जो सैकड़ों साल पहले दफन हो गए थे। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा आकार और प्रचलन के अनुरूप इन ताम्रनिधियों को लगभग 3800 से चार हजार साल पुराना माना है। ऐसे में कहीं न कहीं एक नया इतिहास भी सामने आ सकता है, जिससे कुरावली और मैनपुरी के लोग अनभिज्ञ हैं।
शेरशाह सूरी मार्ग पर बसी थी सुजरई रियासत
1542 ईसवी में दिल्ली पर राज करने वाले सुल्तान शेरशाह सूरी ने पेशावर से बंगाल तक मार्ग का निर्माण किया। इस मार्ग को तब शेरशाह सूरी मार्ग या सड़क-ए-आजम के नाम से जाना जाता था। ये सड़क बांग्लादेश, पूरे उत्तर भारत और पाकिस्तान के पेशावर से होती हुई अफगानिस्तान के काबुल तक जाती थी। प्रमुख राजाओं, व्यापारियों का अवागमन इसी मार्ग से होता था। इसी मार्ग पर सुजरई रियासत और कुरौली (वर्तमान में कुरावली) भी स्थित थी। वर्तमान में इसी शेरशाह सूरी मार्ग को ग्रांड ट्रंक रोड या जीटी रोड के नाम से जाना जाता है।
अस्त्र कारखाना हो सकता है टीला
इतिहासकार श्रीकृष्ण मिश्र बताते हैं कि कुरावली के गांव गणेशपुर में जहां ताम्रनिधियां मिली हैं यहां प्राचीन काल में आबादी नहीं थी। महज डेढ़ से दो सौ साल पहले तक मैनपुरी जिले के अधिकांश क्षेत्र जंगल थे। जहां ये ताम्रनिधियां मिली हैं ये किसी राजा की चौकी रही होगी। समय के साथ चौकी खंडहर होकर टीले में बदल गई और ताम्रनिधियां इसमें दबी रहीं। उनका दूसरा मत भी है। इसके अनुसार ताम्रनिधियों में मिले भाले या त्रिशूल किसी डंडे या अन्य में नहीं लगे हैं, जिससे साफ है कि ये प्रयोग की अवस्था में नहीं थे। ऐसे में जिस स्थान पर ताम्रनिधियां मिली हैं वह स्थान अस्त्र बनाने का कारखाना भी हो सकता है।