उत्तराखंड में बादल फटने से लेकर नदी में बाढ़ जैसी आपदा की क्या है असल वजह
उत्तराखंड: वाडिया हिमालय भू विज्ञान संस्थान ने देहरादून के मालदेवता में बादल फटने के बाद बांदल व सौंग नदी में बाढ़ के बाद किए वैज्ञानिक अध्ययन की रिपोर्ट में नदी किनारे निर्माण पर पाबंदी की सिफारिश की थी। इसके बावजूद प्रदेशभर में नदियों के किनारे निर्माण कार्य धड़ल्ले से चल रहे हैं। वाडिया के वैज्ञानिकों ने रिपोर्ट में नदियों के किनारे अनियोजित निर्माण को प्रतिबंधित करने का सुझाव दिया था।
वाडिया के निदेशक डॉ.कालाचांद साईं, वैज्ञानिक मनीष मेहता, विनीत कुमार, विक्रम गुप्ता, पंकज चौहान का यह शोध जियोलॉजिकल सोसाइटी ऑफ इंडिया के जर्नल में प्रकाशित हुआ। यह अध्ययन सामने आने के बाद भी नदियों के किनारे निर्माण पर रोक के लिए सख्ती नहीं की जा रही। प्राधिकरण से नक्शे भी बदस्तूर पास हो रहे हैं और इमारतें भी बन रही है।
दून शहर की ही बात करें तो सौंग, बिंदाल, रिस्पना, नून जैसी नदियों के किनारे अवैध बस्तियां फैलती ही जा रही हैं। ऋषिगंगा, धारचूला और केदार आपदा ने दिए गहरे जख्म ऋषिगंगा विष्णुप्रयाग, रेणी व केदार आपदा ने भी किनारे पर रहने वाले लोगों को गहरे जख्म दिए। वर्ष 2013 में केदार आपदा का वह मंजर याद करिए जब केदारनाथ आपदा के बाद हरिद्वार तक के इलाके को हाईअलर्ट पर कर दिया गया था।
छह हजार लोगों की जान जाने व एक लाख से अधिक लोगों को एयर लिफ्ट करने के लिए अभियान चलाया गया। ऋषिगंगा रेणी गांव हादसे के बाद भी नदी तट पर रहने वालों को सबसे पहले हाईअलर्ट पर रखा गया। नेपाल में बादल फटने के बाद बनी झील ने धारचूला में नौ सितम्बर 2022 को भारी आपदा आई। सात फरवरी 2021 को ऋषिगंगा हादसे में 100 से अधिक लोगों के शव आज तक नहीं मिल पाए।
ग्लेशियर टूटने से एक घंटे में करीब साठ लाख घन मीटर पानी एकाएक आने से ऋषिगंगा व विष्णुप्रयाग जल विद्युत परियोजना ध्वस्त हो गई थी। केदार आपदा के बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित कमेटी ने नदी तटों, बड़े बांधों व निर्माण कार्य को रोकने की सिफारिश की थी।
सख्ती से अमल जरूरी
वैज्ञानिकों का कहना है कि सिविल निर्माण की अनुमति के लिए तय गाइडलाइन पर सख्ती से अमल करने की जरुरत है। साथ ही नदियों के बहाव और प्रतिक्रिया को समझने के लिए स्वचलित मौसम केन्द्रों का जाल बिछाना होगा। रिपोर्ट के अनुसार, नदी तट कृषि कार्य के लिए तो उपयोगी हैं लेकिन नदियों के प्रवाह में बाधा डालने की वजह से विकासात्मक गतिविधियों के लिए नुकसानदायक है। डॉ. कालाचांद साईं के मुताबिक, वाडिया का यह शोध हिमालयी क्षेत्र में बारिश के बदलते पैटर्न और प्रतिक्रिया को समझने में भी मदद करेगा।