प्रथा के नाम पर महिलाओं को शोषित किये जाने वाली सोच को समाप्त करने के लिए सरकार ने न जाने कितने कदम उठाए, परंतु यह समाप्त होने का नाम नहीं ले रही है. इन्हीं में एक घूंघट और पर्दा प्रथा भी है. इज़्ज़त के नाम पर महिलाओं को पर्दे में जकड़ने वाली यह प्रथा सदियों से चली आ रही है. संकुचित सोच वाली इस प्रथा को पितृसत्तात्मक समाज आज भी गौरव के साथ महिमामंडन करता है. यूं तो यह प्रथा राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा आदि राज्यों में अधिक देखने को मिलती है, परंतु पहाड़ी राज्य उत्तराखंड के कई गांवों में भी यह प्रथा प्रचलित है. समाज का एक बड़ा तबका इस प्रथा का समर्थन करता है. आज भी इन क्षेत्रों के पुराने बुजुर्ग इस प्रथा का समर्थन करते नज़र आते हैं. वह इसे लाज, शर्म और इज्जत मानते हैं. हालांकि नई पीढ़ी इस प्रथा के विरुद्ध नज़र आती है.
हैरत की बात यह है इस प्रथा का समर्थन स्वयं महिलाएं करती हैं और वह इसे संस्कार से जोड़कर देखती हैं. राज्य के बागेश्वर जिला स्थित लमचूला गांव की रहने वाली बुजुर्ग परूली देवी का कहना है कि घूंघट हमारी इज्जत है, घूंघट से ही लड़कियां संस्कारी मानी जाती हैं. वह कहती हैं कि महिला की इज्जत घूंघट के अंदर होती है. यह प्रथा वर्षों से चली आ रही है. एक तरफ यह पुरानी सोच है जो इस प्रथा को मिटने नहीं दे रही है, वहीं दूसरी ओर यह प्रथा महिलाओं के विकास में बेड़ियां बनती जा रही है. इसके माध्यम से उनकी आवाज़ को दबाया जा रहा है. वास्तव में घूंघट प्रथा केवल मुंह ढकने का नाम नहीं है बल्कि इसके माध्यम से उनकी उन आवाज़ों और अधिकारों को कुचला जाता है. जो समाज में हो रहे अत्याचार के खिलाफ उठती हैं. इसकी वजह से महिलाएं खुलकर अपनी बात नहीं कह सकती हैं. सवाल यह है कि क्या इन महिलाओं को अपनी मर्जी से पहनने और ओढ़नी की भी आजादी नहीं है, जबकि हमारे देश को आजाद हुए 74 वर्ष हो चुके हैं. कई क्षेत्रों में आज भी महिलाएं और लड़कियां आजाद नहीं हैं क्योंकि वह अपनी मर्जी से कुछ नहीं कर सकती हैं. एक औरत अपनी मर्जी से घूंघट उठा कर चल नहीं सकती, अगर वह थोड़ा सा घूंघट उठा कर चल ले तो यह शर्म वाली बात क्यों हो जाती है, उस समाज के लिए जो इस प्रथा का समर्थन करते हैं?
हालांकि बदलते समय के साथ इस कुप्रथा के विरुद्ध आवाज़ें भी उठने लगी हैं. नई सोच वाली युवा पीढ़ी इस प्रथा को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है. वह इसे मानसिक रूप से विकास में बाधा मानती है, लेकिन संकुचित सोच वाले ग्रामीण समाज में अभी भी घूंघट प्रथा के खिलाफ उनकी आवाज़ को दबाया जाता है. सामाजिक परिवेश और दबाब के कारण कई ग्रामीण महिलाएं इसके विरुद्ध खुल कर अपनी आवाज़ उठा नहीं पाती हैं. इस संबंध में गांव की किशोरियां रेखा और निशा का कहना है कि आजकल के जमाने में घूंघट कौन करता है? लेकिन ग्रामीण परिवेश में इसे ज्यादा महत्व दिया जाता है. उनका मानना है कि घुंघट महिला की इज्जत है, लेकिन उससे अधिक इज्जत वह है जब लड़का और लड़की दोनों को बराबर माना जाए और अवसर प्रदान किये जाएं. उन्होने कहा कि इसकी वजह से महिलाएं अपनी बात को समाज के सामने नही रख पाती हैं. इससे लड़कियों की इज्जत नहीं बढ़ती है बल्कि उन्हें मानसिक रूप से कष्ट पहुंचाती है. वह ज़ोर देकर कहती हैं कि इस प्रथा को जड़ से खत्म करने की ज़रूरत है.
गांव की सरपंच सीता देवी का कहना है कि घूंघट प्रथा से महिलाओं को बहुत सारी कठिनाइयों का भी सामना करना पड़ता है. जब भी महिला घर से बाहर निकलती है तो उसे सिर को ढकना अनिवार्य होता है. सिर पर बिना घूंघट डाले बाहर नहीं जा सकती है. अगर महिला कभी घूंघट डालना भूल जाए तो उसे घर से लेकर बाहर तक ताने सुनने पड़ते हैं. उन्होंने कहा कि इस प्रथा को समाप्त करने की ज़रूरत है जिससे महिलाएं अपनी आवाज उठा सके. वह कहती हैं कि जब हम अपनी आवाज उठाएंगे, तभी तो अपने अधिकारों को पा सकेंगे. समाज में घूंघट प्रथा से दबी महिलाओं को आजाद कराने की ज़रूरत है.
इस संबंध में आंगनबाड़ी वर्कर बिमला देवी का कहना है कि वर्षों से महिलाओं को घूंघट के नाम पर जकड़ कर रखने वाली प्रथा से आज़ाद कराने की ज़रूरत है. शहरों में भले ही इसका चलन समाप्त हो गया हो, लेकिन ग्रामीण परिवेश में आज भी यह महिलाओं के सामूहिक विकास में सबसे बड़ी बाधा बनी हुई है. आज हमारा समाज आधुनिक विचारों वाला समाज है, जहां महिला और पुरुष को समान अधिकार प्राप्त हैं, ऐसे में घूंघट प्रथा इस आधुनिक विचारों पर एक धब्बा है, जिसे जल्द समाप्त करने की ज़रूरत है क्योंकि इससे महिलाओं को मानसिक रूप से काफी कष्टों का सामना करना पड़ता है. वहीं समाजिक कार्यकर्ता नीलम ग्रैंडी का कहना है कि ग्रामीण परिवेश में घूंघट को लाज और शर्म का प्रतीक माना जाता है, लेकिन मेरा यह मानना है कि यह गलत है. शर्म और इज्जत तो मनुष्य की आँखों से झलकती है ना कि घूंघट से. ऐसा घूंघट किस काम का जहां महिलाओं को परेशानियों का सामना करनी पड़ी? उन्होंने कहा कि समाज में गहराई से अपनी जड़े जमा चुकी इस प्रथा को जड़ से समाप्त करने की ज़रूरत है. इस पर रोक लगनी चाहिए.
आज हमारा समाज हर सोच में, हर क्षेत्र में और हर काम में आगे बढ़ रहा है, जिसमें पुरुष और महिलाओं का बराबर का योगदान है. फिर भी देश के ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं के प्रति संकुचित सोच न केवल आधी आबादी बल्कि समूचे क्षेत्र के विकास में बाधक है. इसे समाप्त करने के लिए जनजागरण अभियान चलाने की आवश्यकता है. इसके विरुद्ध लोगों को जागरूक किया जाना चाहिए. जिसके लिए समाज को ही पहल करनी होगी. इसके अतिरिक्त इसे स्कूली पाठ्यक्रम में भी जोड़ना चाहिए ताकि नई पीढ़ी इसके नुकसान को समझ सके और इसके विरुद्ध अपनी आवाज़ उठा सके. सबसे पहले ज़रूरत है सभी को अपनी उस सोच को बदलने की, जहां बेटी को जीने की आज़ादी का समर्थन तो किया जाता है लेकिन बहु को घूंघट में रहना प्रतिष्ठा का प्रतीक मान लिया जाता है.
कुमारी कविता
लमचूला, गरुड़, बागेश्वर, उत्तराखंड