राजस्थान में कांग्रेसी दंगल का (परमानेंट?) रिजल्ट बकौल अशोक गहलोत घोषित हो चुका है मगर सचिन पायलट की तस्दीक की मुहर इस पर, आज 11 जून की शाम तक लगनी है। पायलट मानें या न मानें, चुनावी ब्याह का सेहरा कांग्रेस हाईकमान, अपनी ओर से गहलोत के सर पहले ही बांध चुकी है। दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी में हालात यह है कि इसने, अजमेर में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की आम सभा आयोजित कर चौबारे पर नौपत बिठाते हुए बिनायक तो न्यौंथ दिया है मगर द्वार पर खड़ी घोड़ी की जीन अभी सूनी है। कोई नहीं जानता इस पर दुल्हन बैठेगी अथवा फिर कोई दूल्हा।
नई बात यह है कि हर चुनाव में, रोलदट्ट के शौकीन तमाशबीनों की जो भीड़ कांग्रेसी पैविलियन में लगा करती थी इस बार भाजपाई तम्बू में भी इसकी तादाद अच्छी खासी है। कांग्रेसी अखाड़े में मुकाबला मात्र दो शूरवीरों के बीच था भाजपा में इनकी फेहरिस्त लम्बी है। मुख्यमंत्री पद को लेकर केन्द्रीय मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत, लोकसभा स्पीकर ओम बिड़ला, नेता प्रतिपक्ष राजेन्द्र राठोड़ व सतीश पूनिया तक के कई नाम कभी इस कोने से तो कभी उस कोने से भाजपाई उम्मीद के आसमान पर उछाले जा रहे हैं मगर हरचंद कोशिश के बावजूद इनमें से कोई नाम ,वहां पहले से छाये एक नाम को ढक नहीं पा रहा है और वह नाम है, पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे का।
इसमें कोई दो राय नहीं कि कांग्रेस की ओर से यदि अशोक गहलोत सामने आते हैं तो भाजपा में उनकी बराबरी का एक मात्र अबूझ नाम सिर्फ वसुंधरा राजे है, इसके बावजूद दिलचस्प यह है कि सारे प्रतिद्वन्द्वी ही नहीं खुद भाजपा हाई कमान दिल से चाहती है, काश राजे के नाम पर विचार करना उनकी मजबूरी न हो। सवाल उठता है कि वसुंधरा के नाम में वह कौनसी आतश है जो किसीके लगाये लग रही और न बुझाए ही बुझ रही है। कहते हैं, 2008 में जब भाजपा को राज्य में मात्र 78 सीटें मिली तब वसुंधरा ने हार की जिम्मेदारी लेने से इन्कार करते हुए तर्क दिया था कि हारी हुई 38 में से 28 सीटें वे हैं जहां संघ ने टिकट वितरण किया। इसके विपरीत 2013 के चुनाव में भाजपा को जब 163 सीटें मिल गई तो राजे ने श्रेय का पूरा छत्ता तोड़ कर अपने झोले में डाल लिया। इसी दरम्यान राष्ट्रीय रजत पट पर मोदी- शाह का अवतरण हो गया और भक्त ब्रिगेड़ को कतई गवारा नहीं था कि भाजपा की किसी भी सफलता का श्रेय श्रीचरणों में अर्पित होने के बजाय व्यक्ति विशेष ग्रहण करे। 2008 में पार्टी की हार के बाद जब तत्कालीन भाजपाध्यक्ष राजनाथ सिंह नें राजे को राज्य से उखाड़ कर केन्द्र में ट्रांसप्लान्ट करना चाहा तो राजे ने 57 विधायकों के इस्तीफे पेश करवा कर उन्हें भी दम दे डाला । रानी की कहानियों ने मोदी शाह को आने से पहले ही चमका तो दिया मगर इन्हें आँटे मे न उलझा पाये ।
कहा जाता है कि मोदी के सत्तासीन होने के बाद राजे ने अपने पुत्र दुष्यन्त का नाम केन्द्र में बढ़ाना चाहा तो मोदी ने परिवारवाद का हवाला देते हुए राजे को अपना रुख जता दिया मगर अब तक चल रहा शीत युद्ध चौराहे पर दिखाई दे गया। 2018 में भाजपा की हार के बाद वसुंधरा के विश्वस्त अशोक परनामी को प्रदेश अध्यक्ष के पद से हटा कर अमित शाह नें जब गजेन्द्र शेखावत को इस पद पर बिठाना चाहा तो राजे फिर दिल्ली जा पहुंची और मदन लाल सैनी को इस पद पर बिठा कर लौटीं। राजे और हाई कमान के रिश्ते समझ में आते ही प्रदेश संगठन ने भी राजे के साथ हिसाब चुकता शुरू कर दिया। कभी पार्टी कार्यालय से इनकी तस्वीर हटाई गई तो कभी परिसर में इनकी कार पार्किंग में रोड़े लगाये गये। पार्टी की किसी बैठक में इन्हें बुलाया नहीं गया तो किसी में ये खुद नहीं पहुंचीं।
चार साल से चल रही इस तमाम छिया छरद के बावजूद पिछले दिनों अजमेर की आम सभा में वसुंधरा राजे को जब नरेन्द्र मोदी के साथ मंच साझा करते हुए देखा गया तो यह साफ हो गया कि तमाम पसंद- नापसंद के बावजूद वसुंधरा का चेहरा राज्य में फिलहाल भाजपा की मजबूरी है। राज्य में भाजपा का चेहरा चाहे कोई बने, यह तय है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों के समान भीतरी हालात आने वाले चुनाव को बेहद दिलचस्प बनाने वाले हैं।