नगालैंड में विश्वास जीतने के लिए नियंत्रित करने होंगे सेना के अधिकार
नगालैंड के मोन जिले में सेना की गोलीबारी में नागरिकों की मौत के बाद विरोध के स्वर गूंज उठे हैं।
नगालैंड के मोन जिले में सेना की गोलीबारी में नागरिकों की मौत के बाद विरोध के स्वर गूंज उठे हैं। इसके बाद राजधानी कोहिमा में नगा विद्रोहियों और छात्र संगठनों की विरोध रैली में सशस्त्र बल (विशेष शक्ति) अधिनियम (एएफएसपीए) 1958, यानी अफस्पा को निरस्त करने और सेना की गतिविधियों को नियंत्रित करने की उठी मांगें आंदोलन की शक्ल में उभर चुकी है। इसका दूरगामी असर नगा शांति प्रक्रिया पर पड़ता दिख रहा है। विभिन्न नगा समुदायों के आम लोग नगा शांतिवार्ता की ओर बड़ी उम्मीद भरी नजरों से देखने लगे थे। इस समुदाय के लोगों को यह भरोसा हो चुका था कि भारत सरकार अब नगाओं के स्वाभिमान और सम्मान की बात सोच रही है।
यही वजह है नगा अलगाववादी संगठनों पर हिंसा छोड़कर शांति प्रक्रिया में भागीदार बनने का दबाव बढऩे लगा था, लेकिन सेना की कार्रवाई के बाद नगालैंड का माहौल बदल गया है। सभी नगा समुदायों को एकजुट करने के लिए मनाया जाने वाला हॉर्नबिल उत्सव भी थम सा गया है, क्योंकि वहां भी सेना के विरोध में पोस्टर दिख रहे हैं। मोन की घटना ने आम नगाओं के दिल को भी गहरे चोटिल कर दिया। इसका प्रत्यक्ष प्रभाव नगा शांति वार्ता पर पडऩा स्वाभाविक है। यदि नगा समुदाय नाराज रहा] तो विद्रोहियों को भी समझाना मुश्किल होगा।लिहाजा इस विरोध आंदोलन के पूर्वोत्तर राज्यों में फैलने के बढ़ते संकेतों के बीच सरकार को नगा शांति प्रक्रिया में आए गतिरोध को दूर करने की स्वाभाविक चिंता करनी पड़ेगी। जांच के लिए गठित एसआइटी की भूमिका पर लोगों के संदेह को कम करते हुए सेना और केंद्र सरकार को नगा समुदाय के दिल में जगह बनाने के लिए उनकी मांगों पर समुचित पहल तुरंत कर देनी चाहिए।
प्रभावित परिवारों को समुचित मुआवजा और न्याय देकर तत्काल राहत देने से लेकर सेना के अधिकारों को नियंत्रित करने के उपायों से विद्रोह की आग को कम करके केंद्र सरकार नगा समुदाय का विश्वास जीतने में सफल हो सकती है। इससे नगा शांति वार्ता के मार्ग की मुश्किलें दूर होंगी।