बता दें कि उच्चतम न्यायालय ने इस साल की शुरुआत में 12 भाजपा विधायकों के एक साल के निलंबन को खारिज करते हुए कहा था कि यह निलंबन निष्कासन या अयोग्य ठहराए जाने से "बदतर" है और सदन या विधानसभा के किसी सदस्य को चालू सत्र की शेष अवधि से ज्यादा के लिये निलंबित करने से लोकतांत्रिक व्यवस्था प्रभावित होगी. न्यायालय ने कहा था कि जुलाई 2021 में मानसून सत्र की शेष अवधि के बाद तक के लिए इन सदस्यों को निलंबित करने वाला प्रस्ताव कानून की नजर में ''असंवैधानिक और तर्कहीन'' है.
12 बीजेपी विधायकों के निलंबन पर बवाल
विधानसभा अध्यक्ष के कक्ष में तत्कालीन पीठासीन अधिकारी जाधव से कथित तौर पर दुर्व्यवहार करने के कारण योगेश सागर, संजय कुटे, आशीष शेलार, अभिमन्यु पवार, गिरीश महाजन, अतुल भातखलकर, पराग अलवानी, हरीश पिंपले, जय कुमार रावल, नारायण कुचे, राम सतपुते और कीर्ति कुमार भांगड़िया को निलंबित कर दिया गया था.
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जाधव ने बृहस्पतिवार को प्रश्नकाल के दौरान कार्यवाही में विधायक सागर के शामिल होने पर आपत्ति जताई. जाधव ने सवाल किया कि एक साल के निलंबन की अवधि पूरी होने से पहले विधायकों को सदन मे प्रवेश की अनुमति कैसे दी गई. उन्होंने कहा कि विधानसभा ने विधायकों को निलंबित किया था और न्यायपालिका विधायिका की कार्यवाही में हस्तक्षेप नहीं कर सकती. इसके बाद विपक्ष के सदस्यों और सत्ता पक्ष के विधायकों ने आसन के समीप पहुंचकर हंगामा किया. बाद में उपाध्यक्ष नरहरि जिरवाल ने सदन को प्रश्नकाल के अंत तक के लिए स्थगित कर दिया.
क्या कहना है शिव सेना का
जब सदन की कार्यवाही फिर से शुरू हुई, तो जाधव ने कहा कि वह भाजपा विधायकों को वापस लेने के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन निलंबन के संबंध में पारित प्रस्ताव की स्थिति जानना चाहते हैं. उन्होंने कहा कि महाराष्ट्र सरकार और विधायिका को विधानसभा के अधिकारों की रक्षा के लिए बोलना चाहिए था। सदन को प्रस्ताव की स्थिति के बारे में सूचित किया जाना चाहिए था.
सुप्रीम कोर्ट ने निलंबन को लेकर क्या कहा था
इस बीच, आशीष शेलार ने कहा कि न्यायालय का 89 पृष्ठीय फैसला विधायिका के अधिकारों में हस्तक्षेप नहीं करता है. उन्होंने कहा कि अदालत ने निलंबन की अवधि को अवैध और असंवैधानिक करार दिया, जबकि विधायिका ने 12 विधायकों की बात को नहीं सुना.
भाजपा विधायक ने कहा कि राज्य की महा विकास आघाड़ी (एमवीए) सरकार के ''अहंकार'' के कारण विधायिका को शीर्ष अदालत में शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा. इस पर, राज्य के संसदीय कार्य मंत्री अनिल परब ने दावा किया कि प्रस्ताव को अवैध और असंवैधानिक नहीं बताया गया है, बल्कि केवल निलंबन की अवधि पर सवाल उठाया गया है।