ये रहे बीजेपी की हार के 3 बड़े कारण, जबलपुर नगर निगम में दो दशक बाद जीती कांग्रेस
जबलपुर. मध्य प्रदेश में हुए नगरीय निकाय चुनाव में मतगणना के पहले चरण के परिणामों ने कांग्रेस को फौरी तौर पर उम्मीद की किरण दी है तो वहीं बीजेपी के लिए ये परिणाम चिंता की लकीरें दे गए हैं. सिंधिया के गढ़ ग्वालियर और सांसद राकेश सिंह के शहर जबलपुर में बीजेपी की हार 7 नगर निगमों की पर मिली जीत को फीकी कर रही है.
बात नतीजों पर करें तो 11 नगर निगमों में से 7 पर जहां बीजेपी को कब्जा मिला तो वहीं 3 पर कांग्रेस ने जीत दर्ज की जबकि एक पर आम आदमी पार्टी आई है. इस सबके बीच सूबे की सबसे हॉट सीट बनकर उभरी जबलपुर नगर निगम में महापौर पद पर दो दशकों का सूखा कांग्रेस के लिए खत्म हो गया. महापौर के लिए कांग्रेस की ओर से प्रत्याशी बनाए गए जगत बहादुर सिंह अन्नू ने 44 हजार से अधिक मतों से जीत हासिल कर ली.
कांग्रेस ने प्रथम नागरिक की जंग तो जीत ली लेकिन पार्षदों के बहुमत में वह पहले से भी पीछे हो गई. 79 वार्डों में 44 पर भाजपा के पार्षद जीते, 26 सीटों पर कांग्रेस जीती. जबकि 2 सीटों पर एआईएमआई एम के पार्षद चुने गए और अन्य सीटों पर निर्दलियों ने बाजी मार ली. नतीजे आने के बाद पूरे महाकौशल को लेकर अब भाजपा चिंतन में जुट गई है. क्योंकि छिंदवाड़ा भी उसके हाथ से फिसल गया.
कहने को जबलपुर नगर निगम पर लगातार चार बार से भाजपा का महापौर रहा. लेकिन आखिर क्या कुछ कारण रहे जो इस बार महापौर पद पर चुनाव मैदान में उतरे बीजेपी के डॉ जितेंद्र जामदार जनता का मन नहीं जीत सके. इस सवाल को लेकर अलग-अलग वर्गों से अलग-अलग राय आ रही है. शुरुआती दिनों से ही उनकी डॉक्टर की छवि और व्यस्त दिनचर्या के बीच यह बात उठने लगी कि आखिर अस्पताल के संचालक कैसे महापौर के पद को संभाल सकेंगे क्योंकि आम जनता के बीच उनका होना एक बड़ा प्रश्न था.
कमलेश का टिकट कटा
बेशक इस पर डॉ जितेंद्र जामदार के दावे यह जरूर थे कि वे 12 घंटे जनता की सेवा में देंगे. उसके बावजूद सोशल मीडिया में उनकी उम्मीदवारी को लेकर तमाम तरह का कैंपेन भी चलता रहा. महापौर पद पर प्रत्याशी की घोषणा होने से पहले भाजपा के जमीनी कार्यकर्ता कमलेश अग्रवाल का नाम सबसे आगे था. जैसे ही प्रत्याशी की घोषणा हुई सोशल मीडिया पर प्रत्याशी चयन पर सवाल उठने लगे. जो भी हो प्रचार प्रसार के दौरान भी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की सक्रियता देखने को तो मिली लेकिन हकीकत पर क्या वाकई पार्टी एकजुट होकर लड़ पाई इस पर भी सवाल उठने लगे हैं. अगर भाजपा 44 वार्डों में अपनी जीत दर्ज करा सकती है तो फिर महापौर पद के लिए आखिर वोट क्यों नहीं जुटा पाई. यह बड़ा सवाल है.
महाकौशल की उपेक्षा
चुनाव परिणामों के बाद राज्यसभा सांसद विवेक तन्खा ने परिणामों को महाकौशल की उपेक्षा से जोड़ा तो वहीं राजनीतिक विशेषज्ञ कह रहे हैं कि गलत प्रत्याशी चुना गया. इस बार निकाय चुनाव के परिणामों को 2023 के सेमिफाइनल के तौर पर देखा जा रहा है. अगर वाकई ऐसा है तो महाकौशल पर सरकार का ध्यान ना देना उसे भारी पड़ सकता है. कमलनाथ सरकार ने महाकौशल से आधा दर्जन मंत्री दिए तो वहीं भाजपा ने मात्र एक राज्यमंत्री देकर इतिश्री कर ली. ऐसे में निकाय चुनाव के परिणामों से महाकौशल को लेकर सरकार की आगामी रणनीति क्या होती है अब यह देखना दिलचस्प होगा.