आजादी के अमृत महोत्सव की बेला में आखिर क्यों सत्याग्रह पर हैं तिरंगा पूजक टाना भगत?
टाना भगत. तिरंगा पूजक और महात्मा गांधी के सच्चे अनुयायी. हर दिन तिरंगे का सम्मान के साथ अपना रूटीन शुरु करने वाला समुदाय
Ranchi: टाना भगत. तिरंगा पूजक और महात्मा गांधी के सच्चे अनुयायी. हर दिन तिरंगे का सम्मान के साथ अपना रूटीन शुरु करने वाला समुदाय. बगैर तिरंगे और अपने पूर्वजों के सफेद झंडे को मान दिये निवाला गले से उतारना अब भी उनके लिये कठिन है. ऐसे में जब आजादी का अमृत महोत्सव मनाने में हर भारतीय डूबा है, खुशियों से सरोबार है. हर घर तिरंगा का अभियान गांव से लेकर शहरों तक चल रहा है. तब टाना भगतों का सत्याग्रह की राह पकड़ना सवालों के दायरे में है. झारखंड राजभवन के समीप उनके सत्याग्रह को 119 दिन हो गये हैं. तमाम कुर्बानियां, त्याग की कहानियां लिखने वालों में शामिल टाना भगतों के सत्याग्रह ने सबों को जज्बाती तौर पर अपनी ओर ध्यान खींचा है.
तिरंगे में आत्मा
टाना भगतों के प्रमुख गुरु रहे जतरा टाना भगत ने गुरु मंत्र देते कहा था कि किसी से मांग कर मत खाना. अपनी पहचान को तिरंगे में लिपटे रहना. इसके बाद ही यह तिरंगा टाना भगतों की आत्मा हो गई है. धर्म बन चुका है. देह पर सफेद कपड़ा, हाथों में तिरंगा, गांधी टोपी, कंधे पर गमछा, शाकाहारी और सात्विक जीवन तथा महात्मा गांधी की नियमित पूजा टाना भगतों की आइडेंटिटी के साथ कई दशकों से जुड़ा हुआ है. राज्य में टाना भगत पंथ के लोग करीब सात से आठ जिलों में हैं. आबादी करीब 30 हजार होगी.
राजभवन के समीप सत्याग्रह पर बैठे भूषण कहते हैं कि उनके समाज के लोगों की आंखों से लेकर दिल तक में तिरंगा बसता है. घर की दीवारों पर देवी-देवताओं की तस्वीर भले ना मिले, घर में तिरंगा जरूर दिखेगा. घर आंगन में तिरंगे की चौताल को हर दिन धोया और पखारा जाता है. और यह सब आज की बात नहीं, भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान से तिरंगा सम्मानीय रहा है. इसे ही उस दौरान टाना भगतों ने अपना हथियार माना था. सोच थी कि तिरंगा के नीचे ना सिर्फ वे बल्कि पूरा भारत सुरक्षित रहेगा. वक्त के साथ तिरंगा के सम्मान का यह सोच टाना भगतों के धर्म में शामिल हो गया है.
टाना भगत रोज नहा धोकर झंडा को पानी देते हैं. जैसे मंदिर में भगवान की पूजा की जाती है, उसी भांति हमलोग तिरंगा की पूजा करते हैं. सफेद झंडे के साथ साथ तिरंगा के पास अक्षत, फूल, धूप, अगरबत्ती, घंटे के साथ पारंपरिक अर्चना की जाती है. सफेद झंडा के बहाने से पूर्वजों को स्मरण किया जाता है. घंटा बजाकर उन तक संदेश पहुंचाया जाता है. तिरंगे को भी मान देते प्रकृति को पूजे जाने का रिवाज जारी है. हर दिन संभव ना भी हो तो हर गुरुवार को समाज के लोग तिरंगे के सम्मान में एक जगह जुटकर उसे पूजते हैं. हर पूर्णिमा को भी इस परंपरा का निर्वाह किया जाता है.
केंद्र तक नहीं पहुंच रही आवाज
भूषण बताते हैं कि राज्य अलग होने के बाद पहली दफा ऐसा होगा कि संवैधानिक प्रावधानों का अनुपालन सुनिश्चित कराने को टाना भगत तीन महीने से भी अधिक समय से सत्याग्रह पर हैं. ऐसे में जब देश 15 अगस्त को आजादी के 75 साल का आनंद आजादी के अमृत महोत्सव पर ले रहा होगा, वे अपने समाज के लोगों के साथ कुछ समय के लिए शोक दिवस मनाएंगे. जिस देश की आजादी के लिए उनके पूर्वजों ने इतनी कुर्बानियां दीं, उसी देश में अब भी संविधान बचाने को अमृत महोत्सव की बेला में शोक मनाना दुखद होगा.
टाना भगतों की मांगें मुख्य तौर पर जमीन और परंपराओं से जुड़ी हुई हैं. 1908 के खतियान के आधार पर भूमि का सीमांकन कर उन्हें जमीन पर कब्जा दिलाया जाना चाहिये. आदिवासी बहुल क्षेत्रों में परंपरागत स्वशासन व्यवस्था बहाल करना भी जरूरी है. संविधान का खुला उल्लंघन राज्य में पांचवीं अनुसूची के क्षेत्रों में हो रहा है. अनुच्छेद 53 (3) (क), 154 (2) (क), 256, 19 (5), 305 और 375 का उल्लंघन चिंतनीय है. अनुसूचित क्षेत्रों में प्रशासन और नियंत्रण व्यवस्था एसटी पर है. कार्यपालिका शक्ति आदिवासियों पर आधारित है. ऐसे में अनुसूचित क्षेत्रों में भारत के नागरिकों या साधारण जनता को कोई वृत्ति, उपजीविका, व्यापार करने का अधिकार नहीं है. झारखंड सरकार का भी काम अनुसूचित क्षेत्रों में जनजातियों को संरक्षण प्रदान करना है, साधारण जनता को संरक्षण प्रदान करना नहीं. केंद्र को इस बात को समझना ही होगा.
सोर्स- News Wing