झारखंड में काली पूजा की धूम, देर रात तक राजधानी में श्रद्धालु करते रहे मां की आराधना
दिवाली की खुशियों के बीच जहां श्रद्धालुओं ने शाम में मां लक्ष्मी और भगवान गणेश की पूजा अर्चना की. वहीं देर रात मां काली की पूजा कर सुख समृद्धि की कामना की.
जनता से रिश्ता। दिवाली की खुशियों के बीच जहां श्रद्धालुओं ने शाम में मां लक्ष्मी और भगवान गणेश की पूजा अर्चना की. वहीं देर रात मां काली की पूजा कर सुख समृद्धि की कामना की. देश के अन्य राज्यों की तरह झारखंड में भी काली पूजा बड़े ही धूमधाम से की गई.
पश्चिम बंगाल के बाद झारखंड ही एक ऐसा राज्य है, जहां बड़े पैमाने पर काली पूजा होती है. अकेले राजधानी रांची में ही हरमू मैदान, कडरू मैदान, अशोक नगर, किशोरगंज चौक, लालपुर क्लब सहित दो दर्जन से अधिक स्थानों पर काली पूजा पंडाल बनाए गये हैं. जहां मां की पूजा बड़े ही भक्तिभाव के साथ की जा रही है. कडरू स्थित कपिलदेव स्कूल मैदान में बने काली पूजा पंडाल में बड़ी संख्या में श्रद्धालु देर रात तक जुटे रहे.
हालांकि यहां पर अन्य वर्षों की तुलना में इस वर्ष मेला या कोई भव्य आयोजन कोरोना के कारण नहीं हो सका. मेनरोड स्थित काली मंदिर में तांत्रिक विधि से पूजा करने की परंपरा है. कोरोना के कारण हालांकि सरकारी गाइडलाइन के तहत पूजा अर्चना करने को पूजा समिति विवश हैं. पंडालों में मूर्ति कम उंचाई की बनाई गई हैं और श्रद्धालुओं का प्रवेश सीमित रखा गया है. कार्तिक मास की अमावस्या तिथि को निशा रात्रि में मां काली का आवाहन और विसर्जन किया जाता है. रातभर होने वाली इस पूजा के दौरान मान्यता यह है कि जो भी श्रद्धालु इसमें शामिल होते हैं उन्हें मनोवांछित फल मिलता है. तंत्र विद्या से जुड़े लोग काली पूजा के दौरान विशेष साधना कर सिद्धि प्राप्त करते हैं.
काली पूजा का मुहूर्त
साधारणतया लक्ष्मी पूजा शाम के वक्त होती है, वहीं काली पूजा आधी रात में की जाती है. इस वर्ष काली पूजा का सबसे शुभ मुहूर्त 4 नवंबर यानी आज देर रात 11.39 बजे से शुरू होकर 5 नवंबर 12.31 बजे तक था. अमावस्या तिथि 4 नवंबर को सुबह 6 बजकर 3 मिनट से शुरू हुआ जो 5 नवंबर को रात 2.44 तक रहा. मां काली की पूजा कार्तिक मास की उस रात को होती है जिस रात को 12 बजे अमावस्या होगा. इस कारण से इस बार 4 नवंबर दीपावली की रात को ही काली पूजा की गई.
काली पूजा की ये है मान्यता
पौराणिक कथाओं में मां काली की पूजा का विशेष महत्व है. मान्यता यह है कि चंड-मुंड और शुंभ-निशुंभ नामक दैत्यों के अत्याचार से मुक्ति के लिए मां अंबे ने चंडी का रुप धारण कर इन राक्षसों को मार गिराया. उनमें एक रक्तबीज नाम का राक्षस भी था, जिसके शरीर का एक भी बूंद जमीन पर पड़ने से उसी का एक दूसरा रूप पैदा हो जाता. रक्तबीज का अंत करने के लिए मां काली ने उसे मार कर उसके रक्त का पान कर लिया और रक्तबीज का अंत हो गया. राक्षसों का अंत करने के बाद भी देवी का क्रोध शांत नहीं हुआ, तब सृष्टि के सभी लोग घबरा गए कि यदि मां का क्रोध शांत नहीं हुआ तो दुनिया खत्म हो जाएगी. ऐसे में भगवान शिव, देवी को शांत करने के लिए जमीन पर लेट गए और माता का पैर जैसे ही शिव जी पर पड़ा उनकी जीभ बाहर निकल आई और वे बिल्कुल शांत हो गई. तब से काली पूजा की परंपरा शुरू हो गई, भक्त आज भी मां को उसी रूप में पूजते हैं. उनकी प्रतिमाओं में मां काली की जीभ बाहर की ओर निकली दिखती है.