भारत सरकार के आदिवासी कल्याण मंत्रालय की ओर से आदिवासियों की विभिन्न परंपराओं को बचाने को लेकर एक सराहनीय पहल की जा रही है. इसी को लेकर गुमला में एक कार्यशाला का आयोजन किया गया, जहां आदिवासी समाज द्वारा बनाए जाने वाले कई सामानों की प्रदर्शनी लगाई गई. इसे कैसे संरक्षित किया जा सकता है, इसको लेकर विस्तार पूर्वक चर्चा हुई. झारखंड के आदिवासी समाज के द्वारा कई ऐसे सामानों का निर्माण परंपरागत तरीके से किया जाता था. जिसे वह बाजार में बेचकर अच्छी खासी कमाई किया करते थे, लेकिन हाल के दिनों में आए बदलाव के कारण इन सामानों की मांग भी कम हो गई और इसे बनाने वालों की संख्या भी कम होती जा रही है.
आदिवासी परंपरा विलुप्त होने के कगार पर
जिसकी वजह से कई ऐसे समान है, जो पूरी तरह से विलुप्त होने के कगार पर आ गए हैं. ऐसे में आदिवासी कल्याण मंत्रालय की ओर से इन्हें संरक्षित करने को लेकर एक पहल की जा रही है. आदिवासी समाज में उपयोग किए जाने वाले ढोल मांदर सहित कई ऐसे समान है, जो काफी आकर्षण का केंद्र हुआ करता था. समय के बदलाव के कारण यह सामान लगातार विलुप्त होते जा रहे हैं, जो चिंता का विषय बनता जा रहा है. ऐसे में आदिवासी कल्याण मंत्रालय की ओर से गुमला के नगर भवन में एक प्रदर्शनी का आयोजन करके जिले के विभिन्न इलाकों से ऐसे सामानों को बुलाने वाले लोगों को बुलाकर उन्हें कहीं ना कहीं सम्मानित करने की कोशिश की गई. साथ ही साथ प्रशासन की ओर से पहल की जा रही है. ऐसे इंसानों को संरक्षण प्रदान किया जाए ताकि एक तो यह सामान पूरी तरह से विलुप्त ना हो. इसके साथ ही ग्रामीणों के आय का स्रोत बन सके.
आदिवासी परंपरा आकर्षण का केंद्र
भारत सरकार के आदिवासी कल्याण मंत्रालय के द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम में पहुंचे बिहार के आदिवासी कल्याण मंत्रालय के क्षेत्रीय निदेशक शैलेंद्र कुमार ने बताया कि उनके विभाग का यह प्रयास है. जो आदिवासियों की परंपरा रही है, वह कैसे जीवित रह सके. आदिवासियों की परंपरा ही उनकी पहचान है. उनके द्वारा बनाए गए कैसे समान है, जो निश्चित रूप से काफी आकर्षण का केंद्र होता है. आज भले ही इन सामानों की बाजार में मांग लोगों के अनुसार कम हो गई है, लेकिन विदेशों में इसकी मांग काफी अधिक देखने को मिलती है.
सरकार की ओर से पहल
भारत सरकार के आदिवासी कल्याण मंत्रालय के द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम में जिस तरह के सामानों को ग्रामीणों द्वारा प्रदर्शित किया गया. वह निश्चित रूप से काफी आकर्षक लग रहे थे, लेकिन सबसे दुर्भाग्य की बात है कि जो सामान पहले स्थानीय बाजारों में भी उपलब्ध हुआ करते थे. वह सामान अब बाजार में उपलब्ध नहीं हो पा रहे हैं, जिसका स्पष्ट मानना है कि निश्चित रूप से ऐसे सामानों की बनाने वालों की संख्या लगातार कम होती जा रही है. जिसके कारण यह सामान पूरी तरह से विलुप्त होते जा रहे हैं, लेकिन सरकार की ओर से इन्हें संरक्षित और समर्थन करने की जो पहल की गई है. वह निश्चित रूप से काफी बेहतर हैं. ऐसे में आदिवासी समाज के लोगों की यह पहचान ना तो मिट पाएगी और ना ही उससे कोई मिटाने की कोशिश कर सकता है कि जब सरकार की ओर से पहल की जाएगी, तो निश्चित रूप से इसे उचित मंच प्राप्त हो सकता है.