आतंकियों और गुलाम कश्मीर में बैठे आकाओं ने फिर से सैटेलाइट फोन पर बातचीत शुरू की

Update: 2022-02-24 16:53 GMT

जम्मू कश्मीर में सक्रिय आतंकियों और गुलाम कश्मीर बैठे उनके आकाओं ने एक बार फिर आपसी बातचीत के लिए सैटेलाइट फोन का इस्तेमाल शुरू कर दिया है। एक माह के दौरान प्रदेश के आतंकग्रस्त और सीमावर्ती इलाकों में आठ सैटेलाइट फोन सक्रिय पाए गए हैं। सुरक्षा एजेंसियोें के मुताबिक, वादी में आतंकियों द्वारा इस्तेमाल किए जा रहे सैटेलाइट फोन अफगानिस्तान में अमरीकी फौज द्वारा छोड़े गए उस साजो सामान का हिस्सा हो सकते हैं। वादी में सक्रिय सैटेलाइट फोन का पता लगाने के लिए एनटीआरओ (नेशनल टेक्नोलाजी रिसर्च आर्गेनाइजेशन) की भी मदद ली जा रही है।

घाटी में सक्रिय आतंकी संगठन पहले भी सैटेलाइट फोन का इस्तेमाल करते रहे हैं, लेकिन मोबाइल फोन विशेषकर स्मार्ट फोन के वादी में शुरू होने के बाद उन्होंने इसका उपयोग बंद कर दिया था। स्मार्ट फोन का प्रयोग आतंकियों के लिए सुलभ रहता है। स्मार्टफोन की उपलब्धता से पूर्व आतंकी घुसपैठ के लिए जीपीएस उपकरण का भी इस्तेमाल करते थे। स्मार्ट फोन के कारण उन्हें अलग से जीपीएस उपकरण नहीं लेना पड़ता और इसके अलावा वह स्मार्ट फोन के जरिए वह इंटरनेट मीडिया के विभिन्न माध्यमों का प्रयोग कर भी अपने कैडर और हैंडलर के साथ लगातार संपर्क में रहते हैं। लेकिन बीते कुछ वर्षाे के दौरान स्मार्ट और मोबाइल फोन ही आतंकियों के लिए काल का कारण बन रहा है। वह इसके जरिये आसानी से पकड़े जाते हैं या फिर उनकी योजनाओं का पता चल जाता है। सैटेलाइट फोन पर होने वाली बातचीत को आसानी से नहीं पकड़ा जा सकता। संबधित सूत्रों ने बताया कि कश्मीर में सक्रिय आतंकियों ने मोबाइल फोन का प्रयोग घटाया है और अब वह सरहद पार बैठे अपने हैंडलरों के साथ लगातार संवाद और संपर्क बनाए रखने के लिए एक बार फिर सैटेलाइट फोन का इस्तेमाल करने लगे हैं। उन्होंने बताया कि बीते एक माह के दौरान करीब आठ जगहों पर सैटेलाइट में सक्रिय पाए गए हैं।

जम्मू प्रांत के पु़ंछ में भी सैटेलाइट फोन सक्रिय पाया गया है, जिन इलाकों में सैटेलाइट फोन की सक्रियता का पता चला है, वहां कुछेक विशेष जगहों पर सुरक्षाबलों ने तलाशी अभियान भी चलाए हैं, लेकिन कोई सफलता नहीं मिली है। उन्होंने बताया कि यह सैटेलाइट फोन नियमित तौर पर सक्रिय नहीं होते, कुछेक समय के लिए कुछ दिनों के अंतराल पर। इसलिए इनकी सही जगह को चिन्हित करना मुश्किल साबित हो रहा है। इसलिए एनटीआरओ की भी मदद ली जा रही है।

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