नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 125वीं जयंती पर Sapphire green के लोगों ने उन्हें पुष्पांजलि अर्पित की
रायपुर: नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 125वीं जयंती पर Sapphire green के लोगों ने उन्हें पुष्पांजलि अर्पित की. आज सफायर ग्रीन Raipur मैं नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 125th जन्म जयंती बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाई गई जिसमें विशेष रुप से अनुराग पांडे , महेंद्र बाफना, भटनागर जी, बसंत जी, अभिषेक अग्रवाल जी, महेश, तूलिका जी, रत्ना जी बाफना रेनू जी गुप्ता एवं लोगों ने हर्षोल्लास से भाग लिया।अनुराग जी और G k भटनागर जी नेता जी प्रति अपनी भावना रखी.
अकेले पड़ने पर भी नेताजी ने कभी नहीं मानी हार
सही मायनों में एक नेता वह होता है जो सबको साथ लेकर चले और लोग जिसके पीछे और साथ चलें. एक नेता वह होता है कि जो वह कोई बड़ी बात कह दे तो उसकी उस पर उसके समर्थकों की संख्या बढ़े ना कि विरोधियों की. लेकिन क्या भारतीय इतिहास और अपने तत्कालीन समकाल में नेताजी की उपाधि पाने वाले नेताजी सुभाष चंद्र बोस के साथ ऐसा था. या केवल चंद समर्थकों के कारण आजाद हिंद फौज की अगुआई करने वाले नेता बस संयोग वश ही नेताजी कहलाए या प्रचारित किए जाने लगे, इन प्रश्नों के उत्तर नेताजी की जीवन को समझने के बाद बिना किसी संदेह के मिल जाते हैं. 23 जनवरी को उनकी जयंती पर यह मनन करने का अच्छा अवसर है.
सुभाष चंद्र बोस का जन्म ओडिशा के कटक शहर में 23 जनवरी 1897 में हुआ था. वे बड़े और संपन्न हिंदू बंगाली परिवार में पिता जानकी नाथ बोस था और माता प्रभावती की नौवीं संतान थे. बचपन से ही सुभाष चन्द्र बोस पढ़ाई में होशियार होने के साथ देशभक्ति की भावना सराबोर थे. बचपन से ही उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति बहुत तेज थी और इंटर की परीक्षा के पहले वे स्वामी विवेकानंद का पूरा साहित्य और आनंद मठ पढ़ चुके थे. लेकिन उन्होंने इसके बाद भी अपनी अंग्रेजी माध्यम वाली पढ़ाई भी जारी रखी.
पिता का मन रखने के लिए सुभाष चंद्र बोस ने आईसीएस परीक्षा (ICS Exam) इंग्लैंड (England) जाने का फैसला तो कर लिया और अपनी काबिलियत दिखाते हुए परीक्षा पास भी कर ली, लेकिन उनका मन देश सेवा की ओर ही जाता रहा और बहुत ही कठिन आईसीएस पास करने के बाद अंततः उन्होंने अपनों तक का विरोध झेलते हुए भारत के स्वाधीनता आंदोलन में भाग लेने के लिए अपनी आईसीएस की नौकरी छोड़ दी और इंग्लैंड से स्वदेश लौट आए.
इसके बाद सुभाष चंद्र बोस भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल होकर देशबंधु चितरंज दास के साथ काम करने लगे जिसकी सलाह उन्होंने गांधी जी (Gandhiji) ने भी दी थी. दास बाबू और सुभाष की स्वराज पार्टी ने कलकत्ता महानगरपालिका का चुनाव जीता और दोनों ने कलकत्ता के लिए खूब काम किया. इसी बीच एक क्रांतिकारी गोपीनाथ साहा को फांसी होने पर सुभाष ने उनका शव अंतिम संस्कार के लिए मांग लिया. इससे अंग्रेजों ने सुभाष बाबू को भी क्रांतिकारी समझ कर उन्हें गिरफ्तार कर लिया.जेल में ही सुभाष को दास बाबू के निधन की खबर मिली. सुभाष अकेले हो गए. जेल में उनकी तबियत बहुत खराब हो गई. उन्हें तपेदिक हो गया. लेकिन बाद उनकी हालत बिगड़ते देख उन्हें रिहा करना पड़ा.
1928 में कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन के समय सुभाष चंद्र बोस कांग्रेस में राष्ट्रीय स्तर पर आ गए और उन्होंने नेहरू के साथ काम किया. दोनों उस समय पूर्ण स्वराज के पक्षधर थे जिसके लिए गांधी जी तैयार नहीं थे. 1930 में सुभाष कोलकाता (Kolkata) में फिर गिरफ्तार हुए और छूटे. इसके बाद वे 1932 में फिर गिरफ्तार हुए तो उनकी सेहत फिर खराब हुई. इस बार फिर अंग्रेजों ने उन्हें छोड़ने के लिए देश छोड़ने की शर्त रखी. इस बार डॉक्टर की सलाह पर सुभाष यूरोप जाने को तैयार हो गएई. यूरोप में भी सुभाष ने आजादी के लिए काम जारी रखा. 1934 में पिता की मृत्यु से पहले उन्हें देखने के लिए वे भारत आए लेकिन उससे पहले ही पिता का निधन हो गया और उन्हें कोलकाता पहुंचते ही फिर गिरफ्तार कर उन्हें कुछ दिन के बाद वापस यूरोप भेज दिया गया.
1938 में कांग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन ने खुद गांधी जी (Gandhiji) ने सुभाष चंद्र बोस (Subhash Chandra Bose) को अध्ययक्ष पद के लिए चुना, सुभाष के अध्यक्षीय भाषण बहुत ही प्रभावशाली था. उन्होंने योजना आयोग की भी स्थापना की. लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के छिड़ने से पहले ही सुभाष की कार्यशैली गांधी जी को खटकने लगी और द्वितीय विश्व युद्ध को एक मौका देखने वाले सुभाष को 1938 में अध्यक्ष पद चुनाव जीतने के बाद भी धीरे धीरे कांग्रेस में हाशिए जाना पड़ा. फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना के बाद भी वे अकेले ही होते गए.
लेकिन सुभाष चंद्र बोस ने यहां हार नहीं मानी और कांग्रेस से अलग हुए बिना ही अपने लिए रास्ता बनाने के फैसला किया. जल्दी ही सुभाष बाबू को गिरफ्तार कर लिया गया और लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और जेल में आमरण अनशन कर दिया. इसकी वजह से वे जेल से छूट कर अपने ही घर में नजरबंद हो गए. और घर आने के बाद वे अंग्रेजों को चकमा देकर पहले पेशावर गए फिर काबुल होते हुए रूस और अंततः जर्मनी पहुंच गए. लेकिन हिटलर से मुलाकात के बाद भी सुभाष निराश नहीं हुए और पूर्व में सिंगापुर जाने का फैसला किया. जहां जाकर उन्होंने आजाद हिंद फौज की कमान संभाली.