साहित्य जगत में धीरे-धीरे पग धरता नाम

Update: 2024-10-11 06:19 GMT

 (12 अक्टूबर जन्मदिन पर विशेष आलेख)

अंचल के स्थानीय समाचार पत्रों में विगत 8 -10 वर्षों से एक नाम जिसकी हिन्दी व छत्तीसगढ़ी भाषा मे निरन्तर कविता पढ़ने को मिल रहा। वह नाम है रोशन साहू 'मोखला' का । जिनकी कविताओं में आध्यात्म व दर्शन परिलक्षित होता है तो हमें वहीं समसामयिक रचनाओं का भी रसास्वादन करने मिल रहा। खामोशी ऐसी भाषा है जो समय आने पर वह सब अभिव्यक्त कर ही देती है जिसके लिए हम नितान्त मौन रहे हैं।यह भी सत्य है बिना किसी उद्देश्य के कोई भी व्यक्ति मौन नही रह सकता। मौन जब मुखरित होता है तो लोक स्वर के संग- संग स्व चिंतन को भी अपने कलम में साधे समेटे हुए दिख पड़ता है। बहुत कुछ अर्थों में यह बात रोशन साहू मोखला के साथ सटीक जान पड़ता है।पेशे से शिक्षक साथ ही हारमोनियम वादन, मानस व्याख्यान, मंच संचालन साथ ही शिक्षक संगठन के अध्यक्ष,जिला समन्वयक सिरजन साहित्य समिति , जिला साहू समाज राजनांदगांव के कला एवं संस्कृति प्रकोष्ठ के सचिव जैसे महती जिम्मेदारियों का निर्वहन कर रहे हैं। शिक्षकीय उत्तरदायित्वों का बेहतर निर्वहन के लिए मुख्यमंत्री शिक्षा गौरव अलंकरण पुरुस्कार शिक्षा दूत से सम्मानित हैं। बहुधा यह देखा जाता है कि लोग स्वयं को प्रस्तुत करने का कोई अवसर नही जाने देते लेकिन वे इस बात से इतर हैं। कहीं भी कुछ कार्यक्रम हो तो कई -कई बार एक दूसरे को दरकिनार कर आगे जाकर फोटो खिंचवाने की उत्कंठा में कइयों साहित्यिकारों को मैंने अब तक देखा है।किंतु उनके साथ रहकर मैंने देखा है कि जैसे ही फोटो सेशन की स्थिति आती है या तो स्वयं बाकी लोगों का फोटो खींचते हैं या वह पीछे रह जाते हैं मैंने उनसे कई बार इस बात को कहा भी तो वह कहते हैं -छोड़ ना भइया! क्या मतलब । हाँ एक बात अवश्य इस संदर्भ में कहना चाहूंगा कि लोगों को अवसर देने के मामले में वे कभी पीछे नहीं रहते चाहे साहित्यिक सांस्कृतिक गतिविधियां हो या कोई और मंच (जिसे हम सांस्कृतिक विधा से जुड़े हुए लोग हंसी मजाक में"माईक चिपकू पर्सन" कहते हैं) साहू जी के साथ ऐसी बात कभी भी नोटिस नही की। सारगर्भित तथ्यपूर्ण विचार सम्प्रेषण से जनमानस को प्रभावित करने में उनकी सानी नहीं।खुमान साव संगीत अकादमी व लोक धुन 'सुरता' के विभिन्न कार्यक्रमों के मंच संचालन के दरम्यान यह बात नजर आई।

जिस विषय की तथ्यात्मक बातें उन्हें मालूम हो तो विचार रखने से गुरेज़ नहीं , सच को सच कह देना उनकी प्रवृत्ति है। 12 अक्टूबर 1969 को राजनादगांव जिलान्तर्गत ग्राम- मोखला में जन्मे रोशन साहू बेहद विनम्र स्वभाव व वर्तमान में जीने वाले व्यक्ति हैं। कई-कई बार उन्हें सुना है कि जो वेद शास्त्र नहीं सीखा पाया वह वैश्विक महामारी कोविड ने सीखा दिया और जो तात्कालिक परिस्थितयाँ निर्मित हुई थी वही आदमी की मूल स्थिति है इसके अलावा जो भी है वह इधर-उधर की बातें हैं उनकी कोविड पर लिखी पंक्ति "दौर कैसा है ये, क्या - क्या दिखा गया।बहुतों ने सिखाना चाहा, ये सीखा गया।कभी न सोचा था ऐसा भी मंजर आएगा।नजदीकियां रूला गया दूरियां रुला गया ।देख लेना ये वक्त , तू भी गुजर जायेगा ।तेज भागते कदमों को, ठहरना आ गया।।"

तो वहीं शादी के दिन बारातियों की अनावश्यक धमा चौकड़ी व खर्चीली शादी पर बाप और बेटी की आंखों ही आंखों की बात-"निंदा चारी के झुलनी म,ददा झूलना अस झुलागे।अशीष कोन दिही इँहा सबो बफे मा भुलागे"।। विलुप्त हो रहे सांस्कृतिक विधा लीला पर चिंतन" होवय रामलीला", तो स्वार्थ की राजनीति पर दो टूक 'गांधी तोला पोगरावत हे'।वर्तमान स्थिति को सुधारने के लिए किसी महापुरुष की बाट जोह रहे प्रवृत्ति पर -फोकटईया मन फोकट बांट-बांट,देस राज ला बेच दिहीं।भगतसिंह गांधी सुभाष ल , फेर इँहा नइ आना हे।।आतंकवाद पर तो उनकी लेखनी और भी सीधा और सपाट है- "ऐसे आदमखोरों को अब, भूखे शेरों के आगे डाला जाए ।निरीह कब तक बने निवाला, दर्द ऐसा अब न पाला जाए। न्याय यही कि ऐसे भेड़ियों को ,भूखे शेरों के आगे डाला जाए ।। तो वहीं नारी अत्याचार पर बहिनों बेटियों को जगाते हैं-अईसन का नदानी वो बेटी, तोर होगे चानी-चानी। उनकी कविताओं में आध्यात्म व दर्शन की छाप स्पष्ट परिलक्षित होती है 'अउ कतका संसार हे' व 'आकाश के उस पार कोई है,जो आवाज दे रहा रह रहकर ' जैसी अनेकानेक लेखनी उनके कलम ने सृजित की है। एक बात और कि व्यंग्य रचना 'छूटे शब्दबाण के वापसी' ,कान म जुंवा नइ रेंगना (एक वैश्विक समस्या) गुदगुदाते हुए भी विसंगतियों पर चोट करने में सफल है तो हास्य की कैप्सूल में व्यंग्य पंक्ति 'बइठांगुर के जादा खरचा हे' जैसी कई और रचनाएं व्यवस्थागत विसंगतियों पर प्रहार करने से नही चूकता। वे प्रेम गीतों के भी गायक हैं जिसकी बानगी- 'पिला पिलाकर साकी भी हारा, मन बैरागी हुआ नही'। रुक्मिणी की पीड़ा का रेखांकन- कुछ तो कहो हे ! मधुसूदन नींदों में भी तुम जगते हो।सारा जग जपता तुम्हे,तुम राधे- राधे जपते हो।। तो वेदना की एक पंक्ति-

"पलकों पले सपन सलोने अश्रुधार न धोये।

ऐसी चलन चले कि कहीं मीरा अब न रोये।।

तो वहीं अपनी प्रेम गीत "दर्द कहाँ से लाओगे" में वे प्रेम पर लिखने वालों के लिए भी कहते है-अधरों का छुअन ना आलिंगन, प्रेमपाश ना बंध पाओ।नैनों से झर-झर नीर बहे,स्वाति बूंद भी ना तुम पाओ।।तब गीत ऐसा लिख जाना,नित नूतन चिरन्तन शाश्वत हो।शब्द व्यंजना के हे कुशल चितेरे ,वो दर्द कहां से लाओगे।। तो कभी प्रेम की ऐसी विषम परिस्थितियों पर उनकी कलम बयां करती कि-"सभी कुछ माफ है तुझको, तेरा तो मुँहजबानी है।आधुनिक जीवन के उहापोह और टूटते परिवार पर भी उनकी चिन्ता -' नित हो रहे मकां बड़े,घरौंदा हो रहा छोटा। बात- बात पर अहं खड़े, मन हो रहा छोटा'।।सुधीय पाठकों की नजरों में वे साहित्य जगत के लिए धीरे धीरे ही सही सशक्त हस्ताक्षर बन रहे हैं किंतु उनसे बातचीत के दरम्यान वे कभी भी स्वयं को कवि नही मानते,वे कहते हैं साहित्य के महा सागर में स्वयं का अस्तित्व बूंद के हजारवें हिस्सा जितना भी नही। बस इस तरह की उनकी व्यक्तित्व ने मुझ जैसे संगीत धर्मी को हारमोनियम के रीड जगह कलम पकड़ने को विवश किया कि अहं शमित ऐसे कलमकार पर कुछ लिख सकूँ। धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय, माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय। निःसंदेह यह पंक्ति धीरे -धीरे चरितार्थ हो रहा है।आज उनके 55 वें जन्मदिन पर संस्कारधानी सहित प्रदेश के साहित्यकारों, कलाकारों की ओर उन्हें बहुत- बहुत शुभकामनाएं व बधाइयाँ ।आपकी संगीत व साहित्य साधना अनवरत चलती रहे।आपके दीर्घायु व मंगलमयी जीवन की असीम कामनाएँ।

गोविन्द साव

(संस्थापक खुमान साव संगीत अकादमी/ लोक संगीतकार)

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