मुख्यमंत्री भूपेश के मंशा अनुसार जेनरिक मेडिकल स्टोर्स से आम जनता को फायदा नहीं मिल रहा
जेनरिक दवाएं गरीबों के बजाय मेडिकल स्टोर संचालकों की भर रही हैं जेब
डाक्टरों को निर्देश के बावजूद जेनेरिक दवाई लिखने में आनाकानी कर रहे
शहर के एक बड़े अस्पताल के संचालक की खुद की दवा कंपनी
उस अस्पताल में जेनरिक दवाई लिखनेे की उम्मीद नहीं की जा सकती
जसेरि रिपोर्टर
रायपुर। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के मंशानुसार गरीब और आम जनता को सस्ती दवाई मिले इस हेतु जगह जगह जेनेरिक मेडिकल खोला गया है लेकिन उसका फायदा आम जनता या गरीब मरीजों को नहीं मिल रहा है। जेनरिक दवाएं गरीबों को राहत देने के बजाय मेडिकल स्टोर संचालकों की जेब भर रही हैं। जेनरिक और एथिकल दवाओं को अलग-अलग पहचान पाना आम जनता के बस में नहीं है ये सिर्फ मेडिकल स्टोर्स संचालक और अस्पताल वाले ही समझ सकते हैं। डाक्टरों को सख्त निर्देश के बावजूद भी वे जेनेरिक दवाई लिखने में आनाकानी कर रहे हैं क्योकि जेनेरिक दवाओं में उनका मुनाफा कम होता है और ब्रांडेड दवाओं में ज्यादा। उदाहरण के तौर एक ब्रांडेड दवाई की कीमत अगर 200 रूपये की है तो यही दवाई जेनेरिक मेडिकल स्टोर्स में 15 से 20 रूपये की मिलेगी। यह भी देखा जा रहा है की जेनेरिक दवाओं को अन्य मेडिकल स्टोर्स वाले ब्रांडेड बताकर ग्राहकों को 20 से 25 प्रतिशत छूट दे देते हैं इससे ग्राहक ख़ुशी ख़ुशी दवा लेता है उसके बावजूद दवा विक्रेताओं को 80 प्रतिशत की कमाई होती है जिससे ग्राहक अनजान होते हैं। दवा विक्रेता इसी का फायदा उठा रहे हैं। वे जेनरिक दवा बनाने वाली कंपनियों से सस्ती दर पर दवाएं खरीदकर उन्हें ब्रांडेड के नाम पर महंगे दाम में बेच रहे हैं। इस फर्जीवाड़े में दवा बनाने वाली कंपनियां की भी मिलीभगत होती है। जेनरिक दवाओं पर लागत से कई गुना ज्यादा एमआरपी लिखी जाती है ताकि कुछ फीसदी छूट देने के बावजूद रिटेलर मोटा मुनाफा कमा सकें। एक दवाई कंपनी के सीएंडएफ ने बताया की एक दवा जिसकी लागत 20 रूपये की होती है जिसे नर्सिंग होम के संचालक और मेडिकल स्टोर्स वाले सेटिंग करके सीधे 200 एमआरपी प्रिंट करवा देते है और मरीजों के परिजनों को छूट देकर भी कई गुना अतिरिक्त और अवैध कमाई करते हैं। अनुमान के मुताबिक शहर में 50 फीसदी से ज्यादा मेडिकल स्टोर इस फर्जीवाड़े में शामिल हैं। शहर में औसतन रोजाना करोड़ों रुपए का दवा व्यापार होता है। राजधानी में हजारो की तादात में मेडिकल स्टोर्स हैं। भूपेश सरकार ने मरीजों को सस्ती दवा उपलब्ध कराने के उद्देश्य से जेनरिक दवाओं को बढ़ावा देने की नीति बनाई है। जिसके तहत जगह जगह मुख्य मार्गो पर श्री धन्वन्तरी जेनेरिक मेडिकल स्टोर्स खोले गए हैं। उनकी मंशानुसार गरीब मरीजों और आम जनता को सस्ती दवा उपलब्ध करना है लेकिन छूट का दुरूपयोग किया जा रहा है। नर्सिंग होम संचालक वही देवी लिख रहे हैं जिसमे उनको ज्यादा मुनाफा हो। जेनेरिक मेडिकल स्टोर्स में अगर डाक्टर ने दस जेनेरिक दवाई लिखी है तो मात्र 3 या 4 दवाई ही वहां मिलेगी इससे मरीज के परिजन एक साथ लेने के लिए ब्रांडेड दवा खरीदना उसकी मजबूरी हो जाती है। शहर के मुख्य मार्गो में जहाँ टॉउन एंड कंट्री प्लानिंग के गाइड लाइन के तहत किसी भी प्रकार की व्यावसायिक गतिविधि नहीं हो सकती उन जगहों में भी जेनेरिक मेडिकल स्टोर्स खुल गए हैं ताकि आम जनता को सस्ती दवा उपलब्ध हो सके।
परन्तु देखा ये गया है कि इन जेनेरिक मेडिकल स्टोर्स में वो दवाई तो नहीं मिलेगी जिसके लिए ये खुली है बल्कि हर वो सामान मिल जाएगी जो जनरल स्टोर्स में मिलती है यानी शासन को सीधे सीधे लाखो का चूना लगाया जा रहा है और मुख्यमंत्री के मंशानुसार काम नहीं किया जा रहा है। सरकार ने दवा कंपनियों के लिए जेनरिक दवाएं बनाने की अनिवार्यता लागू की गई, बावजूद इसके सस्ती दवाओं का वास्तविक फायदा मरीजों तक नहीं पहुंच रहा।
मरीजों का जेब हल्का होता है
इन सब सेल्स प्रमोशन का खामियाजा मरीजों को भुगतना पड़ता है। उन्हें लागत से कई गुना ज्यादा दर पर दवाएं खरीदना पड़ती हैं। जो नर्सिंग होम संचालको से मिलकर रेट बढ़ी हुई तय होती है। दूसरी तरफ जेनरिक दवाओं में ये तमाम खर्च नहीं करना पड़ते। न इसका विज्ञापन होता है न ही प्रमोशन। इसके चलते जेनरिक दवाएं ब्रांडेड दवाओं के मुकाबले 10 से 25 गुना तक सस्ती होती हैं, जबकि इनका असर उतना ही होता है जितना ब्रांडेड दवाओं का। बावजूद इसके इसका फायदा मरीजों तक नहीं पहुंच पाता। और शासन की मंशा पर पानी फिरता है।
जेनेरिक के नाम पर कमाई का खेल
कायदे से अगर मरीजों को वाकई फायदा पहुंचना है तो जेनेरिक मेडिसिन में ब्रांड नहीं लिखा रहना चाहिए। सिर्फ मॉलिक्यूल का नाम लिखा रहना चाहिए। ब्रांडेड दवाइयों में मेडिकल स्टोर्स की मार्जिन 20 प्रतिशत होती है लेकिन जेनेरिक में ज्यादा मार्जिन होती है। इसका भी नियम होना चाहिए ताकि जेनेरिक मेडिकल वाले भी ज्यादा मुनाफा नहीं कमा सकें। जेनेरिक मेडिसिन में स्पस्ट रूप से जेनेरिक मेडिसिन लिखा हुआ होना चाहिए। अभी नहीं लिखा होने का फायदा मेडिकल स्टोर्स वाले खुले रूप से उठा रहे हैं मसलन एक जेनेरिक मेडिसिन जिसकी एमआरपी जो दवाई की स्ट्रिप पर 150 रूपये लिखी है उसे जेनेरिक वाले 70 रूपये में बेच रहे हैं उसमे भी वे 50 रूपये मुनाफा ले रहे हैं। जबकि उक्त दवाई की वास्तविक कीमत 20 रूपये ही होती है और 20 प्रतिशत मार्जिन के लिहाज से उन्हें दवाई 24 रूपये में देनी चाहिए। जनता इन सब बातो से अनभिज्ञ होती है
जेनरिक और ब्रांडेड दवा की पहचान नामुमकिन
जनता से रिश्ता ने शहर के मेडिकल स्टोर्स पर इस बात की पड़ताल करने के लिए सर्वे किया तो चौकाने वाली जानकारी सामने आई। एक सामान्य व्यक्ति के लिए यह पहचान पाना लगभग नामुमकिन है कि कोई सी दवा जेनरिक है और कौन सी ब्रांडेड। अभी मार्किट में जेनेरिक लिखा दवाई की स्ट्रिप नहीं आ रही है। जिसका भरपूर फायदा मेडिकल स्टोर्स के संचालक कर रहे हैं। उदहारण के तौर पर सर्दी-खांसी में इस्तेमाल होने वाली एजीथ्रोमाइसिन फॉर्मूले वाली दवाओं की है। एजेक्स के नाम से बनने वाली 3 जेनरिक गोलियों के पैकेट पर एमआरपी 64 रुपए लिखा है। मेडिकल स्टोर संचालक इसे 4 रुपए की छूट के साथ 60 रुपए में बेच रहे हैं, जबकि दवा बाजार में जेनरिक दवाओं के होलसेलर के यहां यह मात्र 30 रुपए में मिल रही है। ऐसी ही कहानी कई अन्य दवाओं की भी हैं। सर्दी-खांसी के नाम पर मेडिकल स्टोर्स पर बिकने वाले ज्यादातर सिरप जेनरिक होते हैं। इनकी कीमत बमुश्किल 20 रुपए तक होती है लेकिन इन्हें कई गुना ज्यादा पर बेचा जाता है।
ऐसे रोक सकते हैं फर्जीवाड़ा
- जेनरिक और ब्रांडेड दवाओं की पहचान के लिए स्ट्रिप पर ही निशानी जाना चाहिए। बड़ी-बड़ी ब्रांडेड दवा कंपनियां ही दवा की रिसर्च करती है। उसमें अरबो रुपिया खर्च होता है ताकि नई दवा दुनिया में अए और उसका लाभ सभी को मिले जैसे कोरोना के टिके की खोज भी एक ब्रांडेड कंपानी ने की थी। एसे मामले में इन्हें छूट मिलना चाहिए बाकी में नहीं।
- केंद्र सरकार दवा कंपनियों को निर्देश दे कि जेनरिक दवाओं को लेंडिंग प्राइज (लागत मूल्य) से एक निश्चित प्रतिशत बढ़ाकर ही बेचें। एमआरपी भी इसी अनुपात में रखी जाना चाहिए ताकि मेडिकल स्टोर्स इसका गलत फायदा न उठा सकें।
अस्पताल संचालक की खुद की दवा कंपनी
दवा कंपनियां अपने उत्पाद के प्रचार-प्रसार के लिए टीवी और अख़बारों में लाखों रूपये की विज्ञापन देती है। मोटी तनख्वाह पर मेडिकल रिप्रजेंटेटिव (एमआर) रखना होते हैं जो डाक्टरों के क्लिनिक और नर्सिंग होम जाकर उन्हें अपनी दवाइयां लिखवाने के लिए प्रमोट करते हैं। साथ ही कंपनियां दवाओं के प्रमोशन के लिए स्पेशल स्कीम लाती हैं। दवा की बिक्री बढ़ाने के लिए डॉक्टरों और मेडिकल स्टोर संचालकों को स्पेशल इंटेंसिव भी दिया जाता है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट के सख्ती के बाद इन सब पर रोक लग गया है। इन तमाम खर्चों को समायोजित करने के लिए दवा कंपनियां दवाओं की कीमत बढ़ा देती हैं। जिसमे नर्सिंग होम संचालकों की भी सहमति होती है। गौरतलब है की रायपुर के नर्सिंग होम संचालक जिनके भाई शहर के नामचीन बिल्डर हैं उनकी खुद की दवा कंपनी है। उनके अस्पताल में सिर्फ उनकी ही कंपनी की दवा लिखी जाती है है जो उनके ही मेडिकल स्टोर्स में मिलती है। ऐसे अस्पताल संचालक शासन के आदेशों को धता बता रहे हैं। यदि प्रशासन कड़ाई से और ईमानदारी से जाँच करे तो गंभीर मामला उजागर हो सकता है।