छत्तीसगढ़ी कविता, बर बिहाव के कपड़ा लत्ता

Update: 2024-04-21 11:19 GMT

रायपुर। मोखला निवासी जनता से रिश्ता के पाठक रोशन साहू ने छत्तीसगढ़ी कविता ई-मेल किया है।

बर बिहाव के लुगरा कुरथा ,येती ओती किंजरय जी।

देवईया कर झन लहुटय, मन संसो झन चिन्हय जी।।

क्वालिटी ले डिपेंड हावय ,सगा पहुना के स्माईल हा।

दूरिहा ले चिनहा जाथे जी , उंखर रेंगे के स्टाईल हा।।

बने-बने खवई-पियई फेर,कहूँ देनी-लेनी कमजोरहा।

बगरे मा थोरको देरी नइ होवय ,जाग जाथे मनथरहा।।

कपड़ा ले जादा सिलौनी खरचा,अतिथि देवन मन चरचा।

रेमण्ड, दिग्जाम मिलना चाही,चाहे गिरवी मा पट्टा परचा।।

ढेरहिन सुवासिन ला देखे,अउ देखे खांध मा डारे लुगरा।

रंग,प्रिंट, कैटलॉग मैचिंग देख,अपने अपन मुँहू उतरा।।

रीत रिवाज ले बाढ़त खरचा, कतेक दूरिहा जाही जी।

नता गोता दूरियावत हे तेहा,कइसन मा तिरियाही जी।।

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