3 सवालों से जानें, क्या है पैतृक संपत्ति पर बेटियों के हक़ पर सुप्रीम कोर्ट के ताज़ा फ़ैसले का मतलब
पैतृक संपत्ति में बेटों का जितना हक़ होता है, उतना ही हिस्सा बेटियों का भी है. इसका ज़िक्र वर्ष 1956 के हिंदू उत्तराधिकार क़ानून में किया गया है. लेकिन वर्ष 2005 में इस क़ानून में किए गए कुछ संशोधनों के चलते कुछ भ्रम की स्थिति पैदा हो गई थी. ऐसे में पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस मामले में सुनाए गए एक फ़ैसले में ऐसा क्या कहा, जिसने उस भ्रम को दूर करने का काम किया है. आइए जानने की कोशिश करते हैं.
क्या है पैतृक संपत्ति, क्या कहता है क़ानून इसके हस्तांतरण के बारे में?
ख़ानदानी यानी पैतृक संपत्ति से मतलब होता है मौजूदा पीढ़ी से तीन पीढ़ियों पहले जमा की गई संपत्ति. अगर आप अपने केस द्वारा समझने की कोशिश करें तो वह कुछ ऐसे समझिए कि आपके परदादा, दादा और पिता द्वारा बनाई और अर्जित की गई संपत्ति. इसे और स्पष्ट रूप से समझें तो पिता को उनके पिता यानी दादा द्वारा मिली संपत्ति और दादा को उनके पिता यानी परदादा से मिली संपत्ति हमारी पैतृक संपत्ति के दायरे में आती है.
हम पिता को दादा द्वारा मिली संपत्ति पर दावा कर सकते हैं, पर पैतृक संपत्ति में पिता द्वारा अपनी कमाई से जमा की गई संपत्ति शामिल नहीं है. उसपर पिता का पूरा अधिकार है कि वे अपने द्वारा बनाई गई प्रॉपर्टी या रुपए-पैसे का बंटवारा कैसे करना चाहते हैं. हां, ऐसा पिता के जीते जी तक होना चाहिए. यानी पिता अपने जीवित रहते अपनी संपत्ति का बंटवारा अपनी इच्छानुसार कर सकते हैं. अपना वसीयतनामा बनवा सकते हैं. यदि पिता की मृत्यु बिना वसीयनामा बनवाए हो जाती है तो उनकी संपत्ति को क़ानूनी रूप से उनके सभी बच्चों का समान रूप से मिलनी चाहिए.
जब क़ानून इतना स्पष्ट है तो कहां फंसा था पेच?
1956 के हिंदू उत्तराधिकार क़ानून में वर्ष 2005 में हुए संशोधन के अनुसार इस क़ानूनी संशोधन के लागू होने से पहले पिता की मृत्यु हो जाए तो बेटी का संपत्ति में अधिकार ख़त्म हो जाता है. यानी, अगर पिता संशोधित कानून लागू होने की तारीख़ (यह संशोधित क़ानून 9 सितंबर, 2005 को लागू हुआ था) को ज़िंदा नहीं थे तो बेटी उनकी पैतृक संपत्ति में हिस्सा नहीं मांग सकती है.
इस वजह से बीते 15 सालों में महिलाओं की एक बड़ी संख्या पैतृक संपत्ति में अपना अधिकार मांगने से वंचित रह गई थी. कई महिलाएं कोर्ट तक पहुंचीं, लेकिन उन्हें क़ानूनी दांवपेच में निराशा हाथ लगी. वहीं, दन्नमा बनाम अमर मामले में कोर्ट ने महिलाओं के हक़ में फैसला दिया और वर्ष 2005 के क़ानून की नई व्याख्या भी की है.
क्या कहा सुप्रीम कोर्ट ने?
अब सुप्रीम कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट ने हिंदू पैतृक संपत्ति के बंटवारे में पुरुषों की प्राथमिकता को सिरे से ख़त्म कर दिया है. सुप्रीम कोर्ट ने हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) कानून, 2005 की धारा 6 की दोबारा व्याख्या करते हुए कहा कि बेटी को उसी वक़्त से पिता की पैतृक संपत्ति में अधिकार मिलता है, जबसे बेटे को मिला था, यानी वर्ष 1956 से.
यह फ़ैसला सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ द्वारा सुनाया गया, जिसकी अध्यक्षता जस्टिस अरुण मिश्रा ने की. इस तीन सदस्यीय पीठ में जस्टिस मिश्रा के अलावा, जस्टिस एस. अब्दुल नजीर और जस्टिस एमआर शाह भी शामिल थे. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पैतृक संपत्ति में बेटियों का बेटों के बराबर, जन्मजात अधिकार होता है. बेटियों के जन्मसिद्ध अधिकार का मतलब है कि उसके अधिकार पर यह शर्त थोपना कि पिता का ज़िंदा होना ज़रूरी है, बिल्कुल अनुचित होगा. बेंच ने कहा,‘बेटियों को जन्मजात अधिकार है न कि विरासत के आधार पर तो फिर इसका कोई औचित्य नहीं रह जाता है कि हिस्सेदारी में दावेदार बेटी का पिता ज़िंदा है या नहीं.’
यह फ़ैसला संयुक्त हिंदू परिवारों के साथ-साथ बौद्ध, सिख, जैन, आर्य समाज और ब्रह्म समाज समुदाय पर लागू होगा. इस फ़ैसले के तहत वे महिलाएं भी अपने पिता की संपत्ति में उत्तराधिकार की मांग कर सकती हैं जिनके पिता का 9 सितंबर 2005 से पहले निधन हो चुका हो.