लड़की तो यहां लड़ी है, लेकिन राम गोपाल वर्मा हार रहे हैं अपनी लड़ाई
अगर आप रामू के फैन हैं तो लड़कीः एंटर द गर्ल ड्रेगन देख सकते हैं. हां, इतना जरूर है कि आपको उन पुरानी फिल्मों वाली बात नहीं मिलेगी.
कुछ महीने पहले यूपी विधानसभा चुनाव में 'लड़की हूं लड़ सकती हूं' सिर्फ एक नारा था. निर्देशक राम गोपाल वर्मा की फिल्म लड़कीः एंटर द गर्ल ड्रेगन में आप लड़की को सचमुच लड़ते देख सकते हैं. मई में आई कंगना रनौत की धाकड़ में भी लड़की लड़ी थी लेकिन वहां एक्शन गोली-बारी से भरा था. फिल्म फ्लॉप हो गई थी. वर्मा की लड़की की लड़ाई सीधे हाथ-पैरों की है. लड़की चाकू तक नहीं निकालती. मामला है ब्रूस ली लड़ाई की तकनीक जीत कुन डो का. जिसे आम भाषा में लोग कुंफ-कू, जूडो-कराटे कहते हैं. वर्मा ने फिल्म से ब्रूस ली को श्रद्धांजली दी है. अगर आप नए जमाने की वीएफएक्स से भरी एक्शन फिल्मों से अलग करामात देखना चाहते हैं, तो यह फिल्म आपके लिए है.
थोड़ी-थोड़ी देर में एक्शन
लड़की की फिलॉसफी सिंपल है. आत्मरक्षा और आत्मनिर्भरता. हैदराबाद में रहने वाली पूजा (पूजा भालेकर) जीत कुन डो में ट्रेंड है. वह एक चीनी गुरु से यह सीख रही है. उसके रोम-रोम में ब्रूस ली के लिए प्यार है. एक ओपन रेस्तरां में फोटोग्राफर नील (पार्थ सूरी) उसे मिलता है, जो एक लड़की को कुछ गुंडों की छेड़छाड़ से बचाना चाहता है और पिटता है. पूजा फिर गुंडों को पीटती है. यहां से नील और पूजा की बातें-मुलाकातें बढ़ते हुए प्यार तक पहुंचती है और विलेन (राजपाल यादव, अभिमन्य सिंह) कहानी में आते हैं. फिल्म पूजा के एक्शन से भरपूर है. वर्मा ने ध्यान रखा है कि बात ब्रूस ली और उनकी फाइटिंग तकनीक की है, तो ये सीन हर थोड़ी देर में आते रहें.
यहां मामला उल्टा है
फिल्म खास तौर पर कहानी, स्क्रिप्ट और डायलॉग में कमजोर है लेकिन यही एक्शन इसकी जान हैं. फिल्म का लुक रीयल रखा गया है, इसलिए चमक-दमक गायब है. बैकग्राउंड म्यूजिक से फिल्म की कमियों को संभालने की कोशिश हुई है. आम फिल्मों में आप देखते हैं कि हीरोइन पर अत्याचार होते हैं और हीरो गुंडों को पीटता है. लेकिन लड़की में उल्टा है. लड़की बार-बार पिटते हुए लड़के को बचाती है. यह रोचक है. वास्तव में यही मैसेज है कि लड़कियां सुरक्षा के मामले में आत्मनिर्भर हों. फिल्म में पुलिस अफसर कहता है कि अगर लड़कियां अपनी सुरक्षा में सक्षम हो जाएं, तो हमारे पास काम ही क्या बचेगा.
यह सवाल तो बनता है
राम गोपाल वर्मा अपनी फिल्मों में हीरोइन को अलग ढंग से पेश करते रहे हैं. यहां भी ऐसा ही है. पूजा को इस तरह कैमरे में कैद किया गया है कि एक्शन और स्किन शो साथ चलते हैं. आप इसे पसंद कर सकते हैं या नापसंद. बीच का रास्ता नहीं है. पूजा भालेकर एक्शन दृश्यों में जमी हैं. सवाल यह उठता है कि अगर हिंदी फिल्मों में विद्युत जामवाल और टाइगर श्रॉफ जैसे एक्शन हीरो हो सकते हैं तो पूजा भालेकर जैसी एक्शन हीरोइन के लिए क्या जगह बनती है? वर्मा की यह फिल्म न देखने की कई वजहें हैं, लेकिन देखने की एक बड़ी वजह सिर्फ यह जिज्ञासा है कि रंगीला, सत्या, भूत और सरकार जैसी फिल्में बनाने वाले इस डायरेक्टर ने नया क्या बनाया है. अगर आप रामू के फैन हैं तो लड़कीः एंटर द गर्ल ड्रेगन देख सकते हैं. हां, इतना जरूर है कि आपको उन पुरानी फिल्मों वाली बात नहीं मिलेगी.