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मेरा मानना है कि आत्महत्या से बड़ा कोई अपराध नहीं है.
जनता से रिश्ता वेबडेस्क | मेरा मानना है कि आत्महत्या से बड़ा कोई अपराध नहीं है. हाल में कोटा से तीन छात्रों द्वारा एक ही दिन अलग-अलग आत्महत्या की खबर आयी. इस खबर ने विचलित कर दिया. दो छात्र तो एक ही हॉस्टल में रहते थे और उनका कमरा भी पास ही था, जबकि तीसरा अन्य इलाके में रहता था. पुलिस के अनुसार, अन्य बच्चों ने बताया कि आधी रात में एक बच्चा अपने कमरे में रो रहा था और उसकी आवाज सुनाई दी थी. वह बीच-बीच में क्लास भी नहीं जा रहा था, लेकिन किसी ने उससे यह नहीं पूछा कि उसकी समस्या क्या है.
कोटा के पुलिस प्रमुख केसर सिंह ने गंभीर बात कही कि अगर किसी बच्चे ने उससे बात की होती, तो शायद वह बच जाता. यह बात हम सबको ध्यान में रखनी है कि यदि कोई बच्चा गुम-सुम नजर आता है, तो उससे जरूर संवाद करें. बिहार, झारखंड, सीबीएसइ और आइसीएसइ बोर्ड के जब भी नतीजे आते हैं, तो कई बच्चों के आत्महत्या करने की दुखद खबरें भी सामने आती हैं. हर राज्य से ऐसी खबरें आती हैं. कुछ अरसा पहले तेलंगाना में 22 बच्चों ने आत्महत्या कर ली थी.
यह कोई साधारण घटना नहीं है. ऐसी खबरें साल दर साल सामने आ रही हैं. इनका उल्लेख मैं इसलिए कर रहा हूं, ताकि हमें स्थिति की गंभीरता का अंदाजा लग सके. कम अंकों का दबाव बच्चे इसलिए भी महसूस करते हैं, क्योंकि हमारे बोर्ड टॉपर के नंबर का स्तर हर साल बढ़ा कर एक अनावश्यक प्रतिस्पर्धा को जन्म दे रहे हैं. एक बोर्ड में बच्चों के 500 में 500 अंक आ रहे हैं, तो दूसरे बोर्ड में 500 में 499 अंक लाने वालों बच्चों की संख्या बढ़ती जा रही है.
दुर्भाग्य यह है कि कुछ दिनों तक ये खबरें चर्चा में रहती हैं, फिर बात खत्म हो जाती है. इस समस्या का कोई हल निकलता हुआ नजर नहीं आ रहा है. परीक्षा परिणामों के बाद हर साल अखबार मुहिम चलाते हैं, बोर्ड और सामाजिक संगठन हेल्पलाइन चलाते हैं, लेकिन छात्र-छात्राओं की आत्महत्या के मामले रुक नहीं रहे हैं. बच्चे संघर्ष करने के बजाय हार मान कर आत्महत्या का रास्ता चुन ले रहे हैं. यह चिंताजनक स्थिति है. माता-पिता और शिक्षकों की यह जिम्मेदारी है कि वे बच्चों को समझाते रहें कि परीक्षा परिणाम ही सब कुछ नहीं है. ऐसे अनगिनत उदाहरण है कि इम्तिहान में बेहतर न करने वाले छात्र-छात्राओं ने जीवन में सफलता के मुकाम हासिल किये हैं.
मौजूदा दौर की गलाकाट प्रतिस्पर्धा और माता-पिता की असीमित अपेक्षाओं के कारण बच्चों को भारी मानसिक दबाव का सामना करना पड़ रहा है. पहले तनाव और अवसाद सिर्फ वयस्क लोगों में होता था, लेकिन अब इसकी चपेट में बच्चे भी आ गये हैं. यह तनाव सबसे अधिक पढ़ाई को लेकर है. कई बच्चे परिवार, स्कूल और कोचिंग में तारतम्य स्थापित नहीं कर पाते हैं और तनावग्रस्त हो जाते हैं. हमारी व्यवस्था ने उनके जीवन में अब सिर्फ पढ़ाई को ही रख छोड़ा है. रही-सही कसर टेक्नोलॉजी ने पूरी कर दी है.
मोबाइल और इंटरनेट ने उनका बचपन ही छीन लिया है. दूसरी ओर माता पिता के पास वक्त नहीं है, उनकी अपनी समस्याएं हैं. नौकरी और कारोबार की व्यस्तताएं हैं, उसका तनाव है. और जहां मां नौकरीपेशा है, वहां संवादहीनता की स्थिति और गंभीर है. स्कूल उन्हें अच्छा नहीं लगता, इम्तिहान उन्हें भयभीत करता है. नतीजतन, वे चिढ़ने लगते हैं और आक्रामक हो जाते हैं. यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि परीक्षा अथवा प्रेम में असफल होने, नौकरी छूटने या बीमारी जैसी छोटी-छोटी वजहों से भी लोग आत्महत्या कर लेते हैं.
अवसाद नये दौर की महामारी के रूप में उभर रहा है. सबसे बड़ी समस्या यह है कि भारत में अवसाद को बीमारी नहीं माना जाता है. पीड़ित व्यक्ति की मदद करने के बजाय लोग उसका उपहास उड़ाते हैं. कई बार पढ़े-लिखे लोग भी झाड़-फूंक के चक्कर में फंस जाते हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में लगभग पांच करोड़ लोग अवसाद से पीड़ित हैं. सबसे विकसित देश अमेरिका में सबसे अधिक लोग अवसाद से पीड़ित हैं,
लेकिन चिंताजनक बात यह है कि पीड़ित लोगों में से केवल आधे लोगों का इलाज हो पाता है. आत्महत्या जैसे कदम की एक वजह सामाजिक व्यवस्था में बदलाव भी है. भारत में परंपरागत परिवार का ताना-बाना टूट रहा है. परिवार एकाकी हो गये हैं और नयी व्यवस्था में बच्चों को बाबा-दादी, नाना-नानी का सहारा नहीं मिल पाता है. कठिन वक्त में उन्हें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत होती है. ऐसे में अनेक बच्चे आत्महत्या जैसा कदम उठा ले रहे हैं.
शिक्षा और रोजगार का चोली-दामन का साथ है. यही वजह है कि बिहार और झारखंड में माता-पिता बच्चों की शिक्षा को लेकर बेहद जागरूक हैं. वे हमेशा यह चाहते हैं कि उनका बच्चा अच्छी से अच्छी शिक्षा पाए, ताकि उसे रोजगार मिल सके. वे बच्चों की शिक्षा के लिए अपनी पूरी जमा-पूंजी लगा देने को तैयार रहते हैं, लेकिन बच्चों की बढ़ती आत्महत्या भारतीय शिक्षा प्रणाली पर भी सवाल खड़े करती है. यह सही है कि मौजूदा दौर में बच्चों का पढ़ाना कोई आसान काम नहीं रहा है.
बच्चे, शिक्षक और अभिभावक शिक्षा की तीन महत्वपूर्ण कड़ी हैं. शिक्षा के बाजारीकरण के इस दौर में न तो शिक्षक पहले जैसा रहा और न ही छात्रों से उसका पहले जैसा रिश्ता रहा. पहले शिक्षक के प्रति न केवल विद्यार्थी, बल्कि समाज का भी आदर और कृतज्ञता का भाव रहता था. अब तो ऐसे आरोप लगते हैं कि शिक्षक अपना काम ठीक तरह से नहीं करते हैं. इसमें आंशिक सच्चाई भी है कि बड़ी संख्या में शिक्षकों ने दिल से अपना काम करना छोड़ दिया है, पर यह भी सच है कि समाज ने भी शिक्षकों का आदर करना बंद कर दिया है.
कुछ समय पहले कैंब्रिज विश्वविद्यालय की सहयोगी संस्था द्वारा किये गये शिक्षा संबंधी एक वैश्विक सर्वे में बताया गया था कि भारत के बच्चे दुनिया में सबसे ज्यादा ट्यूशन पढ़ते हैं. सर्वे के अनुसार भारत में 74 फीसदी बच्चे ट्यूशन पढ़ते हैं. इनमें से अधिकतर गणित विषय में सहायता लेते हैं. इतनी बड़ी संख्या में बच्चों का ट्यूशन पढ़ना चिंताजनक स्थिति की ओर इशारा करता है. यह इस देश का दुर्भाग्य है कि शिक्षा कभी चुनावी मुद्दा नहीं बनती है. समाज की इसी उपेक्षा ने हमारी शिक्षा व्यवस्था और उसकी चुनौतियों को विमर्श के केंद्र में नहीं रखा है.