Anniversary: 'पाथेर पांचाली' के लिए सत्यजीत रे ने पत्नी के जेवर रखे थे गिरवी, ऐसे बन पाई थी पहली फिल्म
फिल्म की प्रगति की जांच करने का अनुरोध किया था। हस्टन ने सत्यजित द्वारा दिखाए गए बीस मिनट के मूक रफ-कट के आधार पर उसे अच्छी समीक्षा दी थी।
सिनेमा जगत में जापान के अकीरा कुरोसावा, इटली के फेडरिको फेलिनी, स्वीडन के इंगमार बर्गमैन, मैक्सिको के लुइस बुनुएल, रूस के आंद्रेई टारकोवस्की, जर्मनी के आर. डब्ल्यू फासबाइंडर, फ्रांस के जीन रेनॉयर, जीन-ल्यूक गोडार्ड और फ्रांकोइस ट्रूफोट और अमेरिका के डी.डब्ल्यू ग्रिफिथ, अल्फ्रेड हिचकाक,बिली वाइल्डर, मार्टिन स्कार्सेसी और स्टीवन स्पीलबर्ग के साथ सत्यजित रे को अब तक के सबसे महान फिल्ममेकर में शुमार किया जाता है। आज भी उनकी अमिट छाप भारतीय सिनेमा पर स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है।
उनकी पहली फिल्म 'पाथेर पांचाली' थी। इस फिल्म ने उन्हें अंतरराष्ट्रीय ख्याति दिलाई थी। हालांकि इस फिल्म की राहें उनके लिए आसान नहीं रहीं। अप्रैल 1943 में उन्होंने ब्रिटिश द्वारा संचालित विज्ञापन एजेंसी डी.जे. कीमर में जूनियर विजुअलाइजर के रूप में काम करना शुरू किया था और अगले तेरह साल फर्म के साथ बिताए, जहां उन्होंने कई नवीन विज्ञापन अभियान तैयार किए। जब उनके सहयोगी डी.के. गुप्ता ने अपना पब्लिशिंग हाउस सिग्नेट प्रेस शुरू किया तो उन्होंने सत्यजित से किताबों और उनके जैकेटों को चित्रित करने के लिए कहा। साल 1945 में गुप्ता ने विभूति भूषण बंदोपाध्याय के उपन्यास 'पाथेर पांचाली' का एक संक्षिप्त संस्करण प्रकाशित किया, जिसे सत्यजित ने चित्रित किया। उस समय तक, उन्होंने बहुत अधिक बांग्ला साहित्य नहीं पढ़ा था, लेकिन पुस्तक ने उन पर एक गहरी छाप छोड़ी। यह प्रभाव तब और गहरा हुआ जब एक फिल्म पत्रिका के पूर्व संपादक गुप्ता ने उनसे कहा कि यह एक अच्छी फिल्म बन सकती है। सिग्नेट प्रेस के साथ उनके लंबे जुड़ाव ने सत्यजित को बांग्ला साहित्य पढ़ने का अवसर प्रदान किया। बाद में कुछ और पुस्तकों का उन्होंने चित्रण किया, जिन्हें बाद में उन्होंने फिल्मों के लिए अडैप्ट किया।
साल 1947 में, सत्यजित ने अपने कुछ दोस्तों की मदद से कोलकाता की पहली फिल्म सोसायटी की सह-स्थापना की। बैटलशिप पोटेमकिन पहली फिल्म थी जिसे उन्होंने प्रदर्शित किया था। उसके बाद सत्यजित ने अंग्रेजी और बांग्ला दोनों में समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में सिनेमा पर लेख लिखना शुरू कर दिया। यही नहीं अपने खुद के आनंद के लिए उन्होंने पटकथा लिखना भी शुरू किया। वर्ष 1949 में प्रसिद्ध फ्रांसीसी फिल्म निर्देशक जीन रेनायर अपनी फिल्म द रिवर के लिए लोकेशन की खोज में आए। यह फिल्म इसी नाम से लिखे गए उपन्यास पर आधारित थी। सत्यजित को लगा कि यह मौका शायद उन्हें दोबारा नहीं मिलेगा। वह उस होटल में पहुंच गए जहां रेनायर ठहरे हुए थे और उनसे मुलाकात की। उसके बाद दोनों सप्ताहांत में शहर के बाहरी इलाके में फिल्म के लिए मुफीद जगहों की तलाश में निकल जाते। सिनेमा के बारे में सत्यजित के उत्साह और ज्ञान को देखकर रेनायर ने उनसे पूछा कि क्या वह फिल्ममेकर बनने की योजना बना रहे हैं। यह सत्यजित के लिए भी आश्चर्य की बात थी। पर उन्होंने पाथेर पांचाली की संक्षिप्त रूपरेखा दी जिसको उन्होंने हाल ही में चित्रित किया था। इस बीच सत्यजित अपने प्रेमिका बिजॉय से विवाह कर चुके थे। संगीत और सिनेमा से दोनों को ही बहुत लगाव था।
रेनायर ने कोलकाता और उसके आसपास अपनी फिल्म की शूटिंग शुरू की। उन्होंने सत्यजित के कई करीबी दोस्तों को क्रू मेंबर के तौर पर शामिल किया। हालांकि फिल्म का हिस्सा न बन पाने का सत्यजित को काफी मलाल था। दरअसल, उन्हें उनकी फर्म का कला निर्देशक बना दिया गया था और उन्हें एजेंसी के प्रधान कार्यालय में काम करने के लिए लंदन भेज दिया गया था। सत्यजित और बिजॉय ने समुद्री जहाज से लंदन की यात्रा की। इस यात्रा में उन्हें 16 दिन का समय लगा। सुरेश जिंदल द्वारा लिखी किताब 'माई एडवेंचर्स विद सत्यजित रे' के मुताबिक उस यात्रा के दौरान सत्यजित अपने साथ नोटबुक ले गए थे जिसमें उन्होंने नोट किया कि वह पाथेर पांचाली फिल्म को कैसे बनाएंगे। उन्होंने योजना बनाई कि इसे वास्तविक स्थानों पर नए चेहरों के साथ बिना मेकअप शूट किया जाएगा। हालांकि उनके दोस्तों ने इस विचार पर नकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त की थी।
विदेश में अपने छह महीनों के प्रवास दौरान सत्यजित ने विटोरियो डी सिका की 'द बायसाइकल थीफ' सहित लगभग 100 फिल्में देखीं, जिसने उन पर गहरा प्रभाव डाला। इसने उनके इस विश्वास को बढ़ाया कि नवोदित कलाकारों और वास्तविक स्थानों पर शूटिंग के साथ यथार्थवादी सिनेमा बनाना संभव है। 1950 के अंत में जब उन्होंने घर वापसी की यात्रा की, तब तक उन्होंने पाथेर पांचाली का पूरा खाका तैयार कर लिया था। फिल्म निर्माण में बिल्कुल भी अनुभव नहीं होने के कारण उन्होंने प्रस्तावित फिल्म परियोजना पर तकनीशियनों के रूप में काम करने के लिए अपने दोस्तों के एक समूह को इकठ्ठा किया। सुब्रत मित्रा को सिनेमैटोग्राफर, अनिल चौधरी को प्रोडक्शन कंट्रोलर और बंसी चंद्रगुप्त को कला निर्देशक बनाया।
उन्होंने पाथेर पांचाली के लेखक की विधवा से अनुमति ली। उन्होंने मौखिक रूप से अपनी अनुमति दी थी लेकिन बाद में पैसों के बेहतर विकल्प मिलने के बावजूद वह अपनी बात पर अडिग रहीं। फिल्म के लिए निर्माता ढूंढना आसान नहीं रहा। कुछ लोग उनकी स्क्रिप्ट को पसंद करते, लेकिन कोई भी उसमें पैसा लगाने को तैयार नहीं था। निर्माता की खोज में सत्यजित के दो साल निकल गए। हर मोड़ पर इनकार का सामना करने के बाद, उन्होंने इसे दिखाने के लिए फिल्म का एक छोटा खंड बनाने का फैसला किया। उन्होंने अपनी बीमा पॉलिसी और दोस्तों और रिश्तेदारों से पैसे उधार लिए। उन्होंने रविवार को शूटिंग करने तय किया क्योंकि वह अभी भी विज्ञापन एजेंसी में काम कर रहे थे। अक्टूबर 1952 में, उन्होंने पहला शॉट लेने की तैयारी की।
यह वह दृश्य है जहां अपू और उसकी बहन दुर्गा काश के फूलों के खेत में ट्रेन की खोज करते हैं। अगले रविवार, जब वे फिल्मांकन फिर से शुरू करने के लिए पहुंचे, तो उन्होंने पाया कि फूलों के पूरे खेत को मवेशियों के झुंड ने खा लिया था। यह उनके लिए काफी डरावना अनुभव था। दृश्य को पूरा करने के लिए रे को अगले सीजन के फूलों की प्रतीक्षा करनी पड़ी और बाद में उन्होंने लिखा कि कैमरे और अभिनेताओं के साथ एक दिन के काम ने मुझे उन सभी दर्जन पुस्तकों से अधिक सिखाया जो मैंने पढ़ी हैं। बाधाओं से निडर होकर उन्होंने अपनी फिल्म के लिए कास्टिंग और स्थानों की तलाशी के काम को आगे बढ़ाया। आखिरकार 1953 में उन्हें निर्माता राणा दत्ता मिले, जिन्होंने उन्हें थोड़ी मदद की और अपनी नवीनतम फिल्म की रिलीज के बाद और अधिक धनराशि देने का वादा किया। सत्यजित ने बिना तनख्वाह एक महीने की छुट्टी ली और बोराल गांव में कुछ और दृश्यों की शूटिंग शुरू कर दी। उनका काम बढ़ ही रहा था कि राणा की फिल्म रिलीज हुई और फ्लाप रही। उनके पास देने के लिए धन नहीं रहा।
सत्यजित शूटिंग की व्यवस्था कर चुके थे तो उन्होंने पत्नी की सहमति से जेवर गिरवी रख दिए, और कुछ दिनों तक फिल्मांकन जारी रहा। इस प्रयास से बनी चार हजार फीट की फिल्म को उन्होंने जितने भी निर्माताओं को दिखाया सभी ने ठुकरा दिया। आखिरकार किसी ने पश्चिम बंगाल सरकार से संपर्क करने को कहा। वह पैसे देने को राजी हो गई। 1954 में, न्यूयॉर्क म्यूजियम ऑफ मॉडर्न आर्ट (एमओएमए) के निदेशक मोनरो व्हीलर कलकत्ता में एक प्रदर्शनी लगा रहे थे, और उन्होंने सत्यजित की फिल्म के कुछ स्टिल्स देखे। वह इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने फिल्म के पूरा होने के बाद संग्रहालय में इसका प्रीमियर आयोजित करने की पेशकश की। छह महीने बाद प्रख्यात निर्देशक जान हस्टन अपनी फिल्म द मैन हू वुड बी किंग की लोकेशन की खोज में भारत आए। व्हीलर ने हस्टन से सत्यजित की फिल्म की प्रगति की जांच करने का अनुरोध किया था। हस्टन ने सत्यजित द्वारा दिखाए गए बीस मिनट के मूक रफ-कट के आधार पर उसे अच्छी समीक्षा दी थी।