सास-बहू ब्रांड सीरियलों के शौकीनों के लिए आई थोड़े अलग किस्म की पारिवारिक कहानी, अमृता सुभाष ने किया कमाल
कुल मिला कर यह सीरीज उन दर्शकों के लिए है, जो टीवी सीरियलों से वेबसीरीज पर आए हैं और कुछ वैसा ही अनुभव लेना चाहते हैं.
सास-बहू ब्रांड सीरियलों के शौकीनों के लिए यह थोड़े अलग किस्म की पारिवारिक कहानी है. मूल रूप से यह टीवी धारावाहिकों का ही कंटेंट है, जिसे ओटीटी के हिसाब से ढाल कर टीवीएफ ने बनाया है. टीवीएफ ओटीटी पर कोटा फैक्ट्री, गुल्लक और पंचायत जैसी सीरीज बना चुका है और अलग तरह के कंटेंट क्रिएटर की उसकी पहचान है. सास बहू अचार प्रा.लि. अलग होने की कोशिश करता है लेकिन कहानी में तमाम लॉजिक खो देता है. रिश्तों की बुनावट यहां ढीली है और कहानी में गहराई कम है. ऐसे में यह कहानी ओटीटी से ज्यादा टीवी दर्शकों के नजदीक हो जाती है.
पति, पत्नी, वो और बच्चे
सास बहू अचार प्रा.लि. दिल्ली के चांदनी चौक इलाके में रहने वाली सुमन (अमृता सुभाष) की कहानी है. जो अनपढ़ है. उसे बचपन से यही सिखाया-समझाया गया था कि एक दिन राजकुमार आएगा और गाड़ी में बैठा कर ले जाएगा. फिर जिंदगी भर वही संभालेगा. दिलीप (अनूप सोनी) से शादी के करीब पंद्रह साल बाद दोनों का तलाक हो जाता है क्योंकि दिलीप की जिंदगी में मनीषा (अंजना सुखानी) आ गई है. दिलीप और मनीषा शादी कर लेते हैं. अंजना भी तलाकशुदा है, उसका पहले से एक बेटा है. दिलीप-सुमन के दो बच्चे हैं. एक बेटी, एक बेटा. सुमन पढ़ी-लिखी नहीं और इसलिए उसके सामने आजीविका का संकट है. लेकिन वह कहती है कि साल भर बाद अपने दोनों बच्चों को साथ ले जाएगी. दिलीप से अलग होकर वह अचार बनाने का काम शुरू करती है. इस काम में सास (यामिनी दास) उसकी मदद करती है और एक पड़ोसी शुक्लाजी (आनंदेश्वर द्विवेदी) भी बहुत काम आते हैं. क्या सुमन का अचार का कारोबार चलेगा, उसके चलने में क्या-क्या मुश्किलें आएंगी, मुश्किलें आएंगी तो उनसे कैसे पार पाया जाएगा. यही सब घटनाक्रम आधे-आधे घंटे के छह एपिसोड में समेटा गया है.
कहानी एडजस्ट होती जाती है
सास बहू अचार प्रा.लि. को रफ्तार से चलाने की कोशिश में रफ्तार से लिखा गया है. लेकिन न तो कहानी रफ्तार से चल पाती है और न किरदार रंग जमा पाते हैं. सब कुछ भाग रहा होता है, इसलिए रिश्तों की जटिलता उभर नहीं पाती. पेचीदा स्थितियों से बचने के लिए सब कुछ यहां बड़े आराम से चलाया गया है. पति की पहली शादी के बच्चों को मनीषा आराम से रखती है और दोनों बच्चे भी कम-ज्यादा करके उसके साथ एडजस्ट हो जाते हैं. मनीषा और दिलीप के रिश्तों का सुमन की जिंदगी पर पड़ता असर नहीं दिखता. मनीषा के मन में भी सुमन की गृहस्थी को उजाड़ने, बच्चों को मां से दूर करने की कोई मानसिक जिद्दोजहद नहीं हैं. घटनाओं को उथले ढंग से रचा गया है. सास और सुमन के रिश्ते का प्यार तथा विश्वास या सास और मनीषा के बीच का तनाव इक्का-दुक्का जगह पर उभरता है. बाकी जगहों पर सब सपाट है.
बदला कुछ नहीं, सब जैसे का तैसा
अभिषेक श्रीवास्तव और स्वर्णदीप बिस्वास की कहानी में चार प्रमुख स्त्री पात्र हैं. सुमन, मनीषा, सास और सुमन-दिलीप की बेटी. चारों ही अपने स्त्री होने की नियती को जैसे स्वीकारे हुए हैं. सुमन के अचार मार्केट में खुद को जमाने का संघर्ष छोड़ दें तो इनमें से कोई भी परिवार या समाज में अपनी जगह बनाने की कोशिश करती नजर नहीं आती. उनका संघर्ष नहीं उभरता. उनके दिल की कसक और कसमसाहट नहीं उभरती. यही बात इस सीरीज को सबसे ज्यादा कमजोर बनाती है. फार्मूला कथा की तरह सुमन का अचार बाजार में हिट हो जाता है. मगर एक भी स्त्री पात्र की जिंदगी कोई बड़ी करवट नहीं लेती. कहानी खत्म पर होने पर भी सब कुछ जैसा का तैसा रहता है. यहां किरदार जिन रंगीन-मजबूत घरों में रहते हैं, उन्हें देखते हुए, उनके हालत समझ नहीं आते. ये घर सैट की तरह नजर आते हैं. असली नहीं. अनूप सोनी के किरदार को भी न तो विस्तार दिया गया और न ही वह कहानी में अपनी कट्टर पुरुषवादी मानसिकता के साथ स्थापित होता है. कहानी के सारे तर्क इंसान के हालात का वास्ता देकर रिहा हो जाते हैं.
अमृता सुभाष का परफॉरमेंस है बढ़िया
सीरीज अगर कहीं थोड़ी मजबूती से खड़ी रह पाती है, तो इसकी वजह हैं अमृता सुभाष. सुमन के रूप में उनका अभिनय बहुत अच्छा है. निर्देशक उनसे बेहतर काम ले सकते थे, अगर कहानी में गहराई होती. अंजना सुखानी अपने रोल में जमी हैं. जबकि यामिनी दास का किरदार भी लेखकीय कमजोरी की वजह से उभर नहीं पाता. कुल मिला कर यह सीरीज उन दर्शकों के लिए है, जो टीवी सीरियलों से वेबसीरीज पर आए हैं और कुछ वैसा ही अनुभव लेना चाहते हैं.