एनडीए में महिलाएं!
सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में एक बार फिर इस बात पर जोर दिया कि आर्मी में महिलाओं के साथ भेदभाव करने वाली मानसिकता के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में एक बार फिर इस बात पर जोर दिया कि आर्मी में महिलाओं के साथ भेदभाव करने वाली मानसिकता के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। अंतरिम आदेश के जरिए कोर्ट ने यह साफ कर दिया कि आगामी 5 सितंबर को होने वाली एनडीए (नैशनल डिफेंस अकैडमी) प्रवेश परीक्षा में महिलाएं भी बैठ सकेंगी। हालांकि उनका नामांकन इस मामले में आने वाले अंतिम फैसले पर निर्भर करेगा, लेकिन कोर्ट के इस फैसले की अहमियत महज एडमिशन प्रॉसेस तक सीमित नहीं है।
कोर्ट का ध्यान मुख्य तौर पर इस बड़े सवाल पर था कि आखिर आर्मी में महिलाओं के सवाल पर खुलापन क्यों नहीं दिख रहा? क्यों हर बार कोर्ट को दखल देकर फैसला सुनाना पड़ता है और फिर भी बात उस खास मामले से जुड़े फैसले पर अमल तक ही सीमित रह जाती है, उससे आगे नहीं बढ़ती? गौर करने की बात है कि अन्य तमाम क्षेत्रों में तो महिलाएं काफी तेजी से आगे बढ़ी हैं, लेकिन सेना में उनकी गति काफी धीमी रही। करीब 14 लाख सैनिकों वाली आर्मी में आज भी महिलाओं का प्रतिशत 0.56 ही है। इस मामले में पिछले साल फरवरी में आया सुप्रीम कोर्ट का वह फैसला ऐतिहासिक माना जाता है, जिसमें अदालत ने न केवल महिलाओं को कमांड पोस्टिंग के लायक बताया बल्कि केंद्र सरकार को यह सुनिश्चित करने का निर्देश भी दिया कि उन्हें परमानेंट कमिशन दिया जाए।
ध्यान रहे, उस मामले में महिलाओं को परमानेंट कमिशन न दिए जाने के पक्ष में यह दलील भी दी गई थी कि सेना में ज्यादातर ग्रामीण पृष्ठभूमि के लोग होते हैं, जिनके लिए महिलाओं से आदेश लेना सहज नहीं है। कोर्ट ने न केवल इस दलील को खारिज किया बल्कि इस मानसिकता को भी बदलने की जरूरत बताई। उसके बाद हालांकि इस दिशा में कई कदम उठाए गए हैं, लेकिन एनडीए परीक्षा में महिलाओं को बैठने से रोकना और उसे नीतिगत मामला बताना स्वीकार्य नहीं हो सकता। सुप्रीम कोर्ट ने ठीक ही प्रवेश परीक्षा में महिलाओं को बैठने देने से ज्यादा अहमियत इस सवाल को दी कि आखिर सेना में इस मानसिकता को बदलने के कारगर प्रयास क्यों नहीं किए जा रहे।
कोर्ट ने फिलहाल खुद को अंतरिम आदेश तक सीमित रखते हुए कहा कि हर मामले में उसके आदेश का इंतजार करना सही नहीं है। सरकार और सेना खुद आवश्यक कदम उठाकर अपनी नीति दुरुस्त करे। हालांकि सेना में लिंग निरपेक्ष नीतियों का मामला उतना सरल नहीं है। महिलाओं के लिए अलग टॉयलेट और ठहरने की अलग व्यवस्था के लिए आवश्यक इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास भी जरूरी है, जो रातोरात नहीं हो सकता। लेकिन महिलाओं को हर फील्ड में समान अवसर देने के संवैधानिक तकाजे को पूरा करने की राह में किसी भी बाधा को स्वीकार नहीं किया जा सकता। उम्मीद की जाए कि अब इस मामले में सेना और सरकार प्रो-ऐक्टिव रोल में नजर आएगी।